SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 737
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टमपरिछेद. ०३ झातीया,अमुकान्वया, अमुकप्रदौहित्री, अमुकदौहि त्रीश्रमका वा तदेतयोर्वर्यावरयोर्वरवर्ययोनि वि मो विवाहसंबंधोस्तु शांतिरस्तु, तुष्टिरस्तु, पुष्टिरस्तु, धृतिरस्तु, बुझिरस्तु, धनसंतानवृझिरस्तु,अहँ ॥" ऐसें कहे॥ पीने गुरु, वरवधूके पाससें गंध, पुष्प, धूप, नैवेद्य करके अग्निकी पूजा करावे. । पीने वधू लाजांजलिको अग्निमें निदेप करे.। पीछे फिर तैसेंही दक्षिण पासे वधू, और वामे पासे वर बैठे। पीछे गुरु वेदमंत्र पढे. ___“॥ अहँ अनादिविश्वमनादिरात्मा, अनादि कालः, अनादिकर्म, अनादिसंबंधो, देहिनां, देहानु मतानुगतानां, क्रोधोहंकारबद्मलोनैः, संज्वलनप्रत्या ख्यानावरणाप्रत्याख्यानानंतानुबंधिनिः शब्दरूपरस गंधस्प रिहानिछापरिसंकलितैः संबंधो अनुबंधः प्रतिबंधः संयोगः सुगमः सुकृतः स्वनुष्टितः सुनिवृत्तः सुप्राप्तः सुलब्धो ऽव्यजावविशेषेण अहँ उँ॥” यह मंत्र पढके फेर ऐसा कहे. .. __“॥ तदस्तु वां सिम्प्रत्यदं केवलिप्रत्यदं चतु र्णिकायदेवप्रत्यहं विवाहप्रधानाग्निप्रत्यहं नागप्रत्यदं नरनारीप्रत्यदं नृप्रत्यदं जनप्रत्यदं मातृप्रत्यदं पितृप्रत्यदं मातृपक्षप्रत्यदं पितृपक्षप्रत्यदं झाति
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy