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________________ जैनधर्मसिंधु. जोगोपोगांतरायव्यवच्छेदाय, इमां अमुकनाम्नीं कन्यां अमुकगोत्रां अमुकनाम्ने वराय अमुकगोत्राय ददाति गृहाण अँहँ ॐ ॥ "" पीछे सर्व लोकोंकेतां कन्याके पक्षी तांबूल देवे । तथा दूर रहे विवाहकालमें वरके जीते हुए, सो कन्या अन्यको न देवे. उक्तंच ॥ ६० " सकृजास्पन्ति राजानस्सकृजल्पन्ति परिकताः ॥ सकृत् प्रदीयते कन्यात्री एयेतानि सकृत् सकृत् ॥ १ ॥ "" राजाओं एकवार बोलते हैं, पंकित जन एक वार बोलते हैं, कन्या एकवार दिइजाती हैं. पूर्वोक्त तीन कार्य एकएकहीवार होते हैं. ॥ तथा वर जी, तिस कन्याको वस्त्र, जरण, गंधा दिउत्सवसहित, तिसके पिताके घरमें देवे. । कन्याका पिता जी, परिजनसंयुक्त वरको महोत्सवसहित वस्त्र मुद्रि कादिक देवे. ॥ " लग्न दिन पहिले मासमें वा पक्षमें, यवकासानु सारें दोनों पक्षोंके स्वजनोंको एकट्ठे करके, सांवत्स र - ज्योतिषिकको उत्तम श्रासनऊपर बिठलाके, तिसके हाथसें विवाहलग्न भूमिके ऊपर लिखवावे; और रूप्य, स्वर्णमुद्रा, फल, पुष्प, दूर्वा करके जन्म लग्नवत् विवाहलग्नको पूजे. । पीढे ज्योतिषिको
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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