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________________ अष्टमपरिबेद. ६८‍ श्री जडबाहु, वराह, गर्ग, लल्ल, पृथुयशः, श्रीपति, विरचित विवाहशास्त्र के अवलोकनसें शुभ लग्न देख के विवाहका आरंभ करना. ॥ श्लोकः ॥ ततश्च कुलदेशादि गुरुवाक्य विशेषतः ॥ अनुज्ञातं विवाहादि गर्गादिमुनिभिः पुरा ॥ १ ॥ वृत्तम् ॥ सूर्यः षट् त्रिदश स्थित स्त्रिदशषट्सप्ताद्यगचंद्रमा जीवः सप्तनवद्विपंचमगतो वक्रार्कजौ षट् त्रिगौ ॥ सौम्यः षट् द्विचतुर्दशाष्टमगतः सर्वेप्युपांते शुजाः शुक्रः सप्तमषदशाष्टर हितः शार्दूलवत्रासकृत् ॥ १ ॥ स्त्रीयोंको बृहस्पति बलवान् होवे, पुरुषोंको सूर्य बलवान् होवे, और दंपती को चंद्र बलवान् होवे तो, लग्न शोधना ॥ प्रथम कन्यादानविधि कहते हैं:- पूर्वोक्त समान कुलशीलवाले, अन्य गोत्री सें कन्या मांगनी । पूर्वो क्त गुणविशिष्ट वरकेतांश कन्या देनी । कन्याके कुलज्येष्ठने वरके कुलज्येष्ठको, नालियर, क्रमुक (सुपारी) जिनोपवीत, व्रीही, दूर्वा, हरिद्रा अप ने २ देशकुलोचित वस्तु दानपूर्वक कन्यादान करना. तदा गृहस्थगुरु वेदमंत्र पढे । स यथा ॥ "“ ॥ ॐ परमसौजाग्याय, परमसुखाय, परम जोगाय, परमधर्म्माय, परमयशसे, परमसन्तानाय, ८७
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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