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जैनधर्मसिंधु. अथ षष्टमं षष्ठीसंस्कारस्वरूपं ॥ के दिनमें संध्याके समयमें गुरु प्रसूतिघरमें श्राकरके षष्ठीपूजन विधिका श्रारंज करे, षष्ठीपूज नमें सूतक नही गिणना. यत उक्तम् ।। स्वकुले तीर्थमध्ये च तथावश्ये बलादपि ॥ षष्ठीपूजनकाले च गणयेन्नैव सूतकम् ॥ १॥
इसवचनसें ॥ सूतिकागृहकी जीत और नूमि दोनोंको सधवायोंके हाथसें गोबरसें खेपन करावे,। तदपीजे दृश्य शुक्रबृहस्पतिके वर्त्तनेवाली दिशाके नींतनागको खडी आदिसें धवल ( श्वेत) करावे, और नूमिजागको चौंकमंडित करावे. । तदपीने श्वेत नींतनागके ऊपर सधवाके हाथेकरी कुंकुम हिंगुलादिवोंसें आठमाताओंको उर्जी, (खमीयां)
आठ बैठी, और आठ सुती, लिखवावे. कुलक्रमां तरमें गुरुकर्मातरमें षट् (६) षट् (६) लिखनीया.। तदपीछे सधवा स्त्रीयोंके गीतमंगल गाते हुए चौंकमें शुनासनके ऊपर बैग हुआ गुरु, अनंतरोक्त पूजा क्रम करके मातायोंको पूजे. यथा ॥
“॥ ही नमो जगवति । ब्रह्माणि । वीणापुस्त कपद्मादसूत्रकरे । हंसवाहने श्वेतवर्णे । इह षष्ठी - पूजने आग २ स्वाहा ॥"
तीनवार पढके पुष्पकरके आह्वान करे।तदपीछे॥ “॥ ही नमो नगवति । ब्रह्माणि । वीणापुस्त