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________________ शष्टमपरिछेद. ४५ संपत्ति वसुधातलें विलसे जैन विहार ॥ सो ॥ ॥ १३ ॥ श्रागें चौवीशी हुई अनंती, होशे वार अनंत ॥ नवकार तणी कोश् आदि न जाणे, एम नांखे अरिहंत ॥ पूरव दिशि चारे आदि प्रपंचे, समस्यो संपत्ति सार ॥ सो० ॥ १४ ॥ परमेष्ठि सुरप द ते पण पामे, जे कृत कर्म कगेर ॥ पुमरिगिरि उपर प्रत्यदा पेख्यो, मणिधर ने एक मोर ॥ सह गुरु सन्मुख विधि समरंता, सफल जनम संसार ॥ सो० ॥ १५ ॥ शूलिकारोपण तस्कर कीधो, लोह खरो परसिझ॥तिहां शेनें नवकार सुणाव्यो, पाम्यो अमरनी फ॥ शेग्ने घर आवी विघ्न निवास्यो, सुरें करी मनोहार ॥ सो० ॥ १६ ॥ पंच परमेष्ठि झानज पंचह, पंचह दानचारित्र॥ पंच सद्याय महा व्रत पंचह, पंच समिति समकित ॥ पंच प्रमाद विषय तजो पंचह, पालो पंचाचार ॥ सो ॥ १७॥ कलश ॥ बप्पय ॥ नित्य जपीयें नवकार, सार संपत्ति सुखदायक ॥ सिझमंत्र ए शाश्वतो, एम जंपे जगनायक ॥ श्री अरिहंत सुसिक, शुम श्राचार्य जणीजें ॥ श्रीउवज्काय सुसाधु, पंचपरमेष्ठि थुणी जें ॥ नवकार सार संसार बे, कुशल लाज वाचक कहे ॥ एक चितें श्राराधतां, विविधज्ञद्धि वांडित लहे ॥ १० ॥ इति ॥ ११५ ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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