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________________ ४२६ जैनधर्मसिंधु. करे, पण समकित सूधुंनादरे ॥ समकित विण ते सहए फोक, समकित आदर कर रोक ॥२५॥ समकित माय बाप संसार, समकित सुख संपत्तिनो सार ॥ समकित एह धर्मनु मूल, समकितथी सहु ए अनुकूल ॥ २७ ॥ समकित झछि सिकि घर घणी समकित लगे होये सुर धणी ॥ समकित सीजे सघ लां काज, समकित लगें त्रिजुवननुं राज ॥ २ ॥ समकित सहितनुं सुणो प्रमाण, कृष्णरायनुं जुर्ड मंमाण ॥ तपविण श्रेणिक राजद धणी, लेशे पदवी अरिहंत तणी ॥ए॥ समकित पालेजे नर नार, वली नावे ते संसार ॥ एम जाणी समकित श्रा दरो, सिकि रमणी जेम लीला वरो ॥ ३० ॥ इति॥ ॥ श्रथ यात्मशिदा सद्याय ॥ राग रामग्रीमा सहेजानंदी देशी ॥ ॥ आतमरामेंरे मुनि रमे, चित्त विचारीने जोय रे ॥ ताहारुं दीसे न कोय रे, सहु खारथी मट्यु तोय रे, जन्म मरण करे लोयरे, पू सवि मली मली रोय रे ॥ श्रा० ॥ १॥ सजन वर्ग सवि का रिमुं, कूमो कुटुंब परि वार रे ॥ को न करे तुज सार रे, धर्म विण नहीं को आधार रे, जिणें पा मे जव पार रे ॥ आ ॥२॥ अनंत कलेवर मूकी यां, तें कीयां सगपण अनंत रे ॥ जव उकेगें रे तुं .. ..
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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