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________________ पंचमपरिवेद. ४२७ जम्यो तोही न आव्यो तुज अंत रे ॥ चेतो हृदय मां संत रे ॥ श्रा० ॥ ३ ॥ जोग अनंता तें लोग व्या, देव मणुए गतिमाहे रे ॥ तृप्ति न पाम्यो रे जीवमो, हजी तुज वांग डे त्यांहिरे, आण संतोष चित्तमांहि रे ॥ श्रा० ॥ ४ ॥ ध्यान करो रे आतम तणुं, परवस्तुथी चित्त वारी रे ॥ अनादि संबंध तुज को नहीं, शुरू निचे श्म धारी रे इण विध नि ज चित्त गरी रे, मणिचंड आतम तारी रे॥आए ॥ अथ समय सुंदरजीकृन मायानी स्वाध्याय ॥ ॥ माया कारमी रे, माया म करो चतुर सुजाण ॥ जा ॥ ए आंकणी ॥ मायायें वाह्या जगत विलु द्धा, मुखीया थाये अजाण ॥ मा० ॥ १ ॥ न्हाना महोटा नरने माया, नारीने अधिकरी॥ वली वि शेष अतिघणी व्यापे, घरमाने काजेरी ॥ मा० ॥२॥ योगी जंगम यती संन्यासी नग्नथ परवर्या ॥ जंधे मस्तक अग्नि धखंती, मायाथी नवि मरिया ॥मा॥ ॥३॥ माया मेली करी बहु नेली लोग्ने लक्षण जाय ॥ चोर मरें धरतीमां घाले, उपर विसहर थाय ॥ माम् ॥ ४॥ माया कारण उरदेशांतर, अ टवी वनमांजाय,प्रवहण वेसीही पदिपोतर सायरमा जंपाय ॥ मा० ॥ ५॥ शिवजूति सरिखा सत्यवादी, सत्यगोष कहावे ॥ रतन देखी मन तेहy चलीजं, मरीने पुर्गति जावे ॥ माम् ॥६॥ लब्धिदत्त मा
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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