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________________ पंचमपरिबेद. ४२५ मारा गुरु देव, में करवी एहि जनी सेव ॥ पद तणा स्वामीने मान, अवर पदने दे अपमान ॥१६॥ एक सगा जाणी माहातमा, गुणपाखें तारे श्रातमा॥ पात्र जणी पूजे तेहने, समकित केम ले तेहने ॥ ॥ १७ ॥ देखी परखी गुरु गुणवंत, श्रावकने मनसं यमवंत ॥ एह आपणा नही श्म नणे, दान मान सघले अवगणे ॥ १० ॥ एका ने गबनो अनुराग, पण न लहे साचो जिनमाग ॥ वीर वचन लेश्ने पाधलं, कुगुरु सुगुरु जोश् श्रादरुं ॥ १५ ॥ जेहने आगमनुं बहु मान, तेहना उघडे एणे कान ॥ ए साधारण गुरुनी वात, जश्ने जोस्ये मुक्ति मात ॥ ॥२०॥ हृयय नयन तम जुन सुजाण, बंमो कुगुरु ए जिन आण ॥ सदगुरु तणा चरण आचरो, जेम नवसायर लीलायें तरो ॥२१॥ जे जिन आण व हे निशदीश, ते उपर जे नाणे रीश ॥ नवे तत्व निरता सदहे, सूधूं समकित छैते कहै॥॥ एहवुसम कित सूधुं जाण, धर्मकाजनु म करीश काण ॥ जिनवर पूजासजुगुरु नक्ति, जावें करवी श्रातम सक्ति ॥२३॥ पमिकमणुंने फासुं नीर, कीजें धर्म कडं जे वीर ॥ धर्मे कि निधि घर हूंत, धर्मे संकट सवि नाजंत ॥२४॥ धर्मे सूर्य निरतो तपे, धर्मे पाप करम सवि खपे ॥ धर्मे होये रुपनो योग, धर्मपसायें संपत्ति लोग ॥२५॥ जणे गुणे ने बहु तप ५४
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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