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________________ चतुर्थपरिछेद. ३४५ शांतिनाथ जिन स्तवन। प्यारी बेनी शोक तमें समावजो-ए राह॥प्रनु शांतिनाथने समरजो, जिनराज प्रज्जुनुं ध्यान सदा तुमें मनथी,धारजो॥शांतिनाथध्यावो, सुखी थावो, ट्यो लावो, श्रावक कुलमांबावी रुडा गुणथी गाज जो॥प्र.॥१॥ पाप त्यजजो प्रनु नजजो अरिदम जोकर्म रिपुने मारी जलदी शिवमां जावजो प्र. गुण गावे, जगति जावै बहु ध्यावे, अहमदनगरना बाल मित्रने प्रेमे पालजो प्र.॥३॥ श्रीकुंथुनाथ जिन स्तवन । मुखथीरे मायुप्रनु तुम पाशे, आपो मोद रत न, शिवरमणी नहीं जो प्रनुजी नीश्चे एह वचन; मोद वधु नहि मुकुं प्रजुजी निश्चे एह वचन. शिव वधु वरवा, मोजने करवा, मनमा राखं मान, नव स्थिति पाके, समकित सांखे, बावीस करतो गम न। शिव ॥१॥ क्रोध तजवजो, मान हरवजो मायाने मारजो मार; लोज न गरो नव नव टालो; मुज पर राखी मन । शिव ॥२॥ सुखने करजो मुखने हरजो वेजो आप हजूर; कुन्थु जिनवरजी बालमित्र अरजी, स्वीकारो था मगन । शिव०३ श्रीअरनाथजीनुं स्तवन। जैन धर्म हृदय धरो चिंतामणी, मारो कर्म करो गर वरो शिवरमणी, ए टेक । पुर देशांतर थी तुमें
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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