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________________ ३४६ जैनधर्मसिंधु. श्राव्या ॥ सोदागर गुणवंत; जाबुं बे दजी डर तुमारे पको कोईक सन्त । वरो ॥ १॥ जनम जरा मृत्यु त णा, जय ते अपरम्पार; नरक निगोद थी जमतां श् पाम्यो मनुष्यवतार | वरो ॥१॥ धर्मरुपी द्रव्य मे लवी, पहोंचो शिवपूर वास; मनुष्य जव पामी करी, तुमें एवा करीने प्रयास. ॥३॥ वरो ॥ पांचे इंद्री वश करो, मारो चार कषाय; त्रण दलालनी सङ्गत थी, ब्यापार ते बहु थाय ॥ वरो ॥ ॥ श्रीारनाथ कृपा करी, देजो मोक्ष श्रावास ॥ बाल मित्रनी वीनती, प्रभु पुरो म ननी आश| वरो ॥ ५ ॥ इति ॥ मल्लीनाथजीनुं स्तवन । राग परज ॥ पानी ने गमका मचाया ॥ एराह ॥ मल्ली जिने श्वरवन्दिये | ए टेक ॥ मिथुला नयरी अति शोजती, कुम्ज नरेश्वर राय २ । राणी प्रजावती उदरे, मल्ली नाथ प्रभु श्राय | म. ॥ १ ॥ पूर्व जवे माया करी तेथ लाग्या बहु पाप २ ; स्त्रीपणे प्रवीने ऊपना एवो मायानो वे व्याप । म. २ बमित्रने प्रतिबोध तां कीधो बहु उपकार २ । तेम मने प्रतिबोधजो, मारी रज स्वीकार । म. ३ एवं जाणीने श्रमे त्या गशुं, माया कपट विकार २ | बाल मित्रनी विनती. अवधारो ते श्रीकार । म. ४ श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन । कुंवरी कुंवर मारा लागको ए राह मुनिसुव्रत
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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