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________________ ३४४ जैनधर्मसिंधु अनन्ता में कर्या, कुम कपटनो ढुं गेहजी॥था पापी नै उद्धारशो॥ बो तारक निसंदेहजी। अनंत ॥३॥ तुम सम तारक कोई नही, मुज सम पापी न थ न्यजी ॥ करुणा नजर हवे कीजीये, तो था धन्य धन्यजी॥श्र. ॥४॥ नवनव जटक्यो तुम विना, म लीया हवे नगवंतजी, बालमित्रने दीजिये, अक्षय झान अनंतजी । अ. ॥५॥ श्रीधर्मनाथनुं स्तवन । प्रजु धर्म नाथ (२) तुमें धर्मतणा लो दाता, तुम बिना अनंत नव रखमयो पण मली नहीं कांई शा ता प्र॥१॥ हवे तुम डेडो (२) पकडयो करो एक काम, मम घरमा जे तस्वर २ ते काढो तमे तमाम प्र. ॥२॥ महा मेहेनतथी (२) हुँ मेल, अव्य अपार ॥चार चोर दुटी करी मारे जे मने बहं मार, प्र. ॥३॥ तेनि पांच नग्नी (२) पुष्ट कृ त्य करनारी, ते तस जातनी साथै मली वहु पाप करावे जारी प्र.॥४॥ मम मित्र आवे (२) मुज घर माहे कोई वार, जात जग्नी नेगा थई काढे २ तेने बाहार प्र.॥५॥मुज घर केरो (२) में श्रश्व महामद मातो ते पण तेणें कबजकों ने कहं केटली वातो प्र. ॥६॥ दरशन करतां (२) में औलखीया नगवांन, बालमित्रनी अरज स्वीकारो देजो अक्षय ज्ञान प्र.॥६॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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