SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थपरिवेद. ३४३ जगतमा सार रूप एक जैन धरम, पैसा जाण मि थ्यात्वकुं गेडेगें हम, तनका क्या नरोसा निकल जावैगा दम । पूजो ॥१॥ नजो नजो प्रनुकुं क्या लगता हे दाम॥सबसैं आगे प्रजुका हम लेवेगें नाम सेवे जो बिमल नाथ होवेगा काम । पूजो देव०५ बालमित्र पूजे चन्दन केशरचंग, चालोशपूजो प्रनुजी के नव अंग, कहे करजोडी मनसुख मनरङ्ग । पूजो देव० ॥३॥ वैरागीपद वि वि वदन निहार निहार ॥ ॥ प्रोखि तपति अगमा गम कीनो विसरी विगत बिहार ॥ ब० ॥१॥ गये अनादि कालमें ऐसे दीठी न हिय दिदार, निरुपम निजर निहार निहारत, रंजिय रूप रिक वार ॥ ब० ॥२॥ अंतर एक महूरत अंतर प्यार करीश्रणगार, लीने ज्ञान सारपद नीतर, चे तनता जरतार ॥ ब० ॥३॥ इति ॥ श्रीअनन्तनाथ जिनुं स्तवन । खरे उतारो राजा नरथरी॥ ए राह । अनन्त प्र नु मुज तारजो ए टेक। अवगुण मुजमां अनन्त , तुम गुण अनंत अनंतजी; मोहराय वश हुं परयो तुमें तो कीधो तस अंतजी॥१॥अनंत ॥ हूं रागी घणो लालची, तुमें तो थया वीत रागजी। राग केष मु ज टालीये, चार कषायनो त्यागजी। श्रनंत ॥२॥ पाप
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy