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________________ द्वितीयपरिच्छेद. २२५ ॥ आगमोक्त केवली तप ॥ त्र्यंबिल निरंतर दश, उपर एक उपवास, सिद्धपद गुणणा. उद्यापन में इग्यारे मोदक, इग्यारे श्रीफल, पुस्तकके पास ढोकनाष्टकारी पूजा पढानी गुरु जक्ति करनी ॥ ॥ अंग विशुद्धी तप ॥ आयंबिल तीन, नीवी ती न, एकासा तीन, एक उपवास अंतमे करना. सि ऊपद गुणणा. उद्यापनमे तेरे तेरे वस्तु पुस्तक के यागे ढोकना पूजा पढानी गुरु भक्ति करनी. ॥ पद्मोत्तरत॥ नव पांखडी के कमलकों पद्मकदतेहे. इस्मे नव उली करनी चहिये. एकेक जैली के निरंतर अथवा एकांतर आठ आठ उपवास करना. एसी नव ली करनी सिद्धपदगुणला. उद्यापनमें अष्टदल कमल सुवर्णका अथवा चांदीका नया बनाकर बिचमे गौतमस्वामीकी प्रतिमाका आकार करके स्थापन करना और अष्ट प्रकारी पूजा करना. श्रीसंघ औरगुरुनक्तिकरे. ॥ ॥ गणधर तप ॥वर्धमान स्वामी के इग्यारे गण धरके इग्यारह उपवास अथवा आयंबिल करना. उनके नामकी नवकार वाली गुणना. उद्यापनमे गुरुको इग्यारह वेश ( चारित्रोपकरण ) वेहेराना. संघनक्ति गुरुनक्ति और पूजा पढानी. ॥ माणिक्य प्रस्तारिका तप ॥ श्रशोज सुदी इ ग्यारसको उपवास. बारसकों एकासला. तेरसकी २२ " -
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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