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________________ नाम भोगवती था। इनके कई पुत्र थे। जिनमें से एक का नाम द्रष्टद्युम्न था। उनकी एक कोमलांगी पुत्री द्रौपदी भी थी। वह रूप, गुण, बुद्धि, वय व स्वभाव में अद्वितीय थी। उसकी मंद-मंद चाल से हंस भी लज्जित था। अपनी पुत्री के विवाह हेतु उसने स्वयंवर रचकर दुर्योधन आदि राजाओं को भी निमंत्रित किया था। कर्ण, समुद्रविजय आदि के साथ सैंकड़ों राजा व राजपुत्र भी इस स्वयंवर में आये थे। वहीं खगाचल पर्वत पर विद्याधर नरेश सुरेंद्रवर्धन भी रहता था। उसके पास गांडीव धनुष था। एक निमित्त ज्ञानी ने उसे बतलाया था कि जो वीर माकंदी पुरी में आकर तुम्हारे विशाल व उत्तम गांडीव धनुष को चढ़ायेगा, वही तुम्हारी पुत्री का वर होगा। यह जानकर वह अपनी पुत्री व गांडीव धनुष के साथ माकंदीपुरी आया व वह धनुष द्रुपद को सौंप दिया। तब नरेश सुरेंद्रवर्धन ने स्वयंवर की घोषणा कर कहा कि जो गांडीव धनुष को चढ़ाकर लक्ष्य को भेद करेगा; वहीं दोनों कन्याओं का वरण करेगा। इस स्वयंवर मंडप में उपस्थित नरेश व राजपुत्र अनेक प्रकार की भाव व्यंजक चेष्टाओं द्वारा अपने मनोभाव व्यक्त कर रहे थे। अयोध्या नरेश व दुर्योधन वीरता दिखाने के बाद भी पस्त पड़ गये थे। इसी स्वयंवर मंडप में पांडव भी ब्राह्मण वेश में एक स्थान पर शांत भाव से बैठे थे। सभी नरेशों को पराजित होता देखकर युधिष्ठिर ने अर्जुन से गांडीव चढ़ाने को कहा। अनुमति पाकर सिद्ध भगवंतों का स्मरण कर व अग्रजों को नमस्कार कर अर्जुन उठे । अर्जुन को देखते ही द्रौपदी भी ईश्वर से प्रार्थना करने लगी कि हे भगवन् ! यह वीर धनुष को चढ़ावे । अनायास ही वहां जाकर अर्जुन ने गांडीव को उठा लिया व एक गंभीर टंकार किया। तभी वहां उपस्थित द्रोणाचार्य के मुख से सहसा निकल गया कि क्या स्वर्गवासी अर्जुन पुनः जीवित हो गया है। तभी अर्जुन ने लक्ष्य / राधा की नासिका के मुक्ता को एक ही तीर से एक ही बार में निबद्ध कर दिया। तब सभी ने मुक्त कंठ से इस साहसी वीर की भूरि-भूरि प्रशंसा की। द्रुपद अत्यन्त प्रसन्न हो गये। द्रौपदी वरमाला पहनाने जा रही 92 ■ संक्षिप्त जैन महाभारत
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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