SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रही थी कि संयोगवश वायु के झोंके से वह टूट गई व उसके पुष्प अर्जुन के पास बैठे सभी भाइयों पर जा गिरे। दर्शकों ने समझा कि द्रौपदी ने पांचों पांडवों का एक साथ वरण कर लिया है। तभी से यह दंत कथा चल पड़ी पर इसमें सत्यता नहीं है। ___इसके बाद द्रौपदी जाकर अर्जुन के समीप खड़ी हो गई व बाद में माता कुन्ती के पास जाकर बैठ गई। तभी दुर्योधन क्रोध से तमतमाकर बोला- हम बड़े-बड़े राजाओं की उपस्थिति के बीच इस निर्धन ब्राह्मण को स्वयंवर मंडप में किसने प्रवेश करने दिया। इसने हम सभी राजाओं का अपमान किया है। तभी दुर्योधन ने एक दूत को द्रुपद नरेश के पास भेजकर कहलवाया कि आपकी कन्या ने बड़े-बड़े राजाओं के रहते एक अज्ञात निर्धन ब्राह्मण को पति चुनकर बड़ा अन्याय किया है। अतः ब्राह्मण को कुछ दान देकर संतुष्ट कर दें व द्रौपदी को किसी योग्य नृपति को सौंप दें। अन्यथा युद्ध को तैयार हो जावें। दूत के वचन सुनकर द्रुपद ने ऐसा करने से मना कर दिया व अपनी सेनाओं को मित्र राजाओं सहित तैयार रहने का आदेश दे दिया। तब दोनों ओर की सेनाओं में युद्ध प्रारंभ हो। इसके पूर्व उन ब्राह्मणों ने राजा द्रुपद से पांच रथ शस्त्रों सहित देने को कहा। उन रथों पर सवार होकर व दृष्टद्युम्न को द्रौपदी की रक्षा का भार सौंपकर सभी पांडव युद्ध-स्थल को रवाना हो गये। युद्ध-स्थल में भीम शत्रु पक्ष के सैनिकों को विध्वस्त करता हुआ निरंतर आगे बढ़ रहा था। तभी दुर्योधन स्वयं युद्ध क्षेत्र में आ गया। कर्ण भी उसके साथ था। अर्जुन के बाण कर्ण के बाणों को नष्ट कर ही रहे थे कि तभी कर्ण ने पूछ लिया कि हे द्विज श्रेष्ठ आप कौन हैं? तब अर्जुन बोले हे कर्ण, मुझे तुम ब्राह्मण ही समझो। तब कुछ ही देर में अर्जुन ने कर्ण की पताका, छत्र व कवच को छिन्न-भिन्न कर दिया। कौरव सेना ध्वस्त विध्वस्त हो रही थी। यह देखकर गांगेय/भीष्म पितामह युद्ध भूमि में आ गये, तभी अर्जुन ने बाणों से उनका रास्ता रोक दिया। द्रोणाचार्य भी यह देखकर संक्षिप्त जैन महाभारत - 93
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy