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________________ तीर्थंकर नेमिनाथ को केवलज्ञान प्राप्ति व धर्मोपदेश षष्टोपवास के बाद तीर्थंकर नेमिनाथ अपनी प्रथम पारणा हेतु द्वारावती नगरी पधारे। वहां राजा प्रवर दत्त/वरदत्त ने उनका पड़गाहन कर उन्हें नवधा भक्ति पूर्वक आहार दान दिया। जिसके प्रभाव से उनके घर पंच-आश्चर्य हुए, 72 करोड़ 50 लाख रत्नों की दैवीय वृष्टि हुई। तत्पश्चात व्रत, गुप्ति एवं समितिओं से उत्कृष्टता को प्राप्त और परीषहों को सहन करने वाले नेमिनाथ महामुनि रत्नत्रय व तप रूपी लक्ष्मी से सुशोभित होने लगे। वे धर्म-ध्यान व शुक्ल-ध्यान धारण करने को उद्यत हुए। तीर्थंकर नेमिनाथ ने 56 दिन छदमस्थ अवस्था में व्यतीत किये। आश्विन शुक्ला प्रतिपदा के दिन चित्रा नक्षत्र में प्रातःकाल चार घातिया कर्मों के महावन को जलाकर गिरनार पर्वत पर बांस के वृक्ष के नीचे उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। यह क्रिया गिरनार पर्वत पर सम्पन्न हुई। तब भगवान के केवलज्ञान हो जाने की जानकारी लगने पर इन्द्र लोक से इन्द्र व देवताओं का समूह गिरनार पर्वत पर आया व भगवान नेमिनाथ के केवलज्ञान की प्राप्ति की उन्होंने भक्तिभाव पूर्वक पूजा-अर्चना की। उन्होंने गिरनार पर्वत की तीन प्रदक्षिणायें भी दीं। इसी बीच इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने गिरनार पर्वत पर विशाल एवं भव्य समवशरण की रचना की। उनके समवशरण में सुर, असुर, तिर्यंच, मनुष्य सभी एकत्रित हुए। ग्यारह गणधर उनके समवशरण में विराजमान थे। वरदत्त उनके प्रमुख गणधर थे। श्रीकृष्ण आदि जगत प्रसिद्ध नृपतियों ने आकर प्रभु की वंदना, पूजा व अर्चना की। इस समवशरण के मध्य में स्थित गंधकुटी में विराजमान होकर भगवान नेमिनाथ ने दिव्य ध्वनि के माध्यम से संसारी जीवों के कल्याण हेतु अपना प्रथम धर्मोपदेश दिया। उनके समवशरण में 400 पूर्वधारी, 11800 शिक्षक, 1500 अवधिज्ञानी, 1500 संक्षिप्त जैन महाभारत - 163
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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