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________________ राजकुमारों के साथ नगर प्रवेश किया। तब इन्द्रों ने आकर उन्हें सिंहासन पर विराजमान कर उनका अभिषेक कर वस्त्र आभूषणों से विभूषित किया।- - इस समय श्रीकृष्ण, वलभद्र व अनेक राजा नेमिप्रभु के सिंहासन को चारों ओर से घेरकर खड़े थे। नेमिप्रभु को श्रीकृष्ण, भोजवंशी, यदुवंशी आदि सभी राजाओं ने दीक्षा लेने से रोकने का प्रयास किया पर सभी असफल रहे। तब नेमिप्रभु ने अपने माता-पिता को अच्छी तरह समझाया व उन्हें धार्मिक उद्बोधन दिया। तत्पश्चात नेमिप्रभु देवों द्वारा लाई गई उत्तर कुरु/देवकुरु नामकी पालकी में सवार होकर गिरनार पर्वत पर पहुँच गये एवं सहस्त्र वन में जाकर तेला का नियम लेकर एक शिला पर विराजमान हो गये। उन्होंने वहां पहुंचकर आभूषण व वस्त्र त्याग दिये, पंचमुष्टि केशलौंच किया व 1000 राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण कर तपस्या में लीन हो गये। इन्द्र ने उनके केशों को क्षीर सागर में क्षेप दिया। नेमिनाथ प्रभु ने श्रावण शुक्ला 6 को सायंकाल की बेला में मुनि दीक्षा ग्रहण की थी। उन्हें दीक्षा ग्रहण करने के तुरंत पश्चात् चौथे मनःपर्यय ज्ञान की प्राप्ति हो गई। उधर जब राजमती/राजुल को नेमिनाथ के वैराग्य का पता चला तो वह संतापित होकर विलाप करने लगी। तदनंतर तप धारण करने के प्रेरणादायक गुरु वचनों से जब उसका शोकभार कुछ कम हो गया, तो उसने भी जीवन की असारता को समझ कर संयम धारण करने का निश्चय कर लिया तथा वह भी गिरनार पर्वत की प्रथम टोंक के पास जाकर एक गुफा में तप-लीन हो गई। उसने आर्यिका दीक्षा धारण कर ली। गिरनार की प्रथम टोंक के पास आज भी राजुल की गुफा में उनकी मूर्ति बनी है। इसके पहले राजुल को उसके माता-पिता व रिश्तेदारों ने रोकने के अथक प्रयास किये, किन्तु उसने दृढतापूर्वक उन सभी के अनुराध को विनम्रता पूर्वक अस्वीकार कर दिया। दीक्षा के पश्चात् श्रीकृष्ण, बलदेव, इन्द्र व देवताओं ने आकर नेमिनाथ तीर्थंकर के दीक्षा कल्याणक की पूजा की। 162. संक्षिप्त जैन महाभारत
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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