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________________ रहते हुए भी मेरे पुत्र की रक्षा न हो सकी। यह मेरा दुर्भाग्य है। तब विराट को दु:खी व विलाप करते देखकर युधिष्ठिर ने प्रतिज्ञा की कि यदि आज से सत्रह दिवस के अंदर श्वेत कुमार की मृत्यु के लिए निमित्त बने शल्य को न मार डालूं तो आप लोगों के सामने अग्निकंड में निक्षेप कर मैं अपनी इहलीला समाप्त कर दूंगा। तभी शिखंडी ने भी प्रतिज्ञा की कि मैं आज से नवमें दिवस तक भीष्म पितामह को अवश्य मृत्यु शैया पर शायित कर दूंगा। ऐसा न करने पर मैं भी अग्नि कुंड में अपनी आहुति दे दूंगा। प्रात: होने पर समयानुसार फिर रणभेरी का उद्घोष हुआ। रथियों के साथ रथी, अश्वारोहियों के साथ अश्वारोही व हस्ती सवारों के साथ हस्ती सवार युद्ध करने लगे। अर्जुन की बाण वर्षा से समस्त शत्र सेना अस्त-व्यस्त हो गई। तभी भीष्म पितामह ने बीच में आकर अर्जुन की अग्रगति को प्रतिहत कर दिया। तब अर्जुन ने भी अपने एक ही बाण से भीष्म पितामह के समस्त प्रयास नष्ट कर दिये और अनेक हस्तियों, अश्वों व सैनिकों को हताहत कर दिया। अपनी सेना के विनाश को देखकर दुर्योधन क्षुब्ध होकर पितामह से बोला- हे तात! यदि आप इस प्रकार अन्यमनस्क होकर युद्ध करेंगे; तब तो हम लोगों की पराजय निश्चित ही है। आपको तो इस प्रकार युद्ध करना चाहिए जिससे अर्जुन का समस्त पराक्रम व्यर्थ हो जावे। यदि आप दृढ़तापूर्वक युद्ध करने लगे, तो किसमें साहस है कि आपके सम्मुख उपस्थित रह सके। दुर्योधन के इस प्रेरणादायक उद्बोधन से प्रोत्साहित होकर भीष्म पितामह प्रबलतापूर्वक युद्ध करने के लिए अग्रसर हुए और वे सम्मुख खड़े अर्जुन से युद्ध करने लगे। तभी अर्जुन ने भीष्म पितामह से कहा कि हे पितामह! क्या आपको हमसे युद्ध करना उचित प्रतीत लगता है। यदि आप इसे योग्य समझते हैं, तो फिर परिणाम भुगतने को तत्पर रहिये। तभी द्रोणाचार्य भी युद्ध क्षेत्र में उपस्थित हुए व दृष्टद्युम्न से युद्ध करने लगे। द्रोणाचार्य ने शीघ्र ही दृष्टद्युम्न की ध्वजा व छत्र को नष्ट कर दिया। तब द्रोणाचार्य ने संक्षिप्त जैन महाभारत - 129
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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