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________________ आदि अनेक आभूषण, शंख व धनुष जैसी कीमती व दुर्लभ वस्तुयें प्राप्त कर सुरक्षित बाहर निकला आया। इन घटनाओं से वे 500 पुत्र शर्मसार हो गये। तब उन्होंने प्रद्युम्न को मनोवेग विद्याधर के पास भेजा। परन्तु प्रद्युम्न ने उस कीले गये विद्याधर को आजाद कर दिया व उस विद्याधर की उसके शत्रु से मित्रता भी करा दी। इसके परिणामस्वरूप उन्होंने प्रद्युम्न को हार, इन्द्रजाल व कन्या भेंट कर उसे विदा कर दिया। इस प्रकार इन सोलह स्थानों से अनेक महालाभों को प्राप्त करने पर तथा प्रद्युम्न के जीवित रहने पर संवर आदि उन 500 कुमारों के चित्त आश्चर्य से भर गये। तब वे सभी प्रद्युम्न के वशीभूत होकर शान्ति से उनके साथ रहने लगे। एक बार प्रद्युम्न कालसंवर के दर्शन कर उनकी महारानी कनकमाला के महल की ओर गये। प्रद्युम्न ने उन्हें प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लिया। किन्तु कनकमाला का मन प्रद्युम्न पर मोहित हो गया। वह सब कामकाज भूल गई। जब प्रद्युम्न को इस बात का अहसास हुआ; तब उसने सविनय निवेदन करते हुए कनंकमाला को कहा कि आप मेरी माता के समान हैं। आपने ही मुझे पालपोष कर बढ़ा किया है। मैं आपका पुत्र हूँ। तब कनकमाला ने उसे बतलाया कि तू मुझे अटवी में मिला था। मैंने केवल तेरा लालन-पालन किया है । माता कनकमाला से ऐसी बात सुनकर प्रद्युम्न जिनालय में विराजमान सागरचंद्र मुनिराज के पास सत्यता का पता लगाने गये। तब मुनिश्री ने बतलाया कि कनकमाला पूर्वभव में चंद्राभा थी व उससे तुझे प्रज्ञप्ति विद्या मिलने वाली है। तब वापिस आकर प्रद्युम्न ने कनकमाला से इन विद्याओं के बारे में पूछा। तब कनकमाला अपने मन की बात जवान पर लाकर बोली-यदि तू मुझे चाहता है, तो मैं गौरी और प्रज्ञप्ति नाम की विद्या आपको दे सकती हूँ। तब प्रद्युम्न ने कनकमाला का मन रखने के लिए उससे कहा. कि हां, मैं तुझे चाहता हूँ। यह सुनते ही कनकमाला ने वे दोनों विद्यायें प्रद्युम्न को दे दी। विद्या प्राप्त हो जाने पर अत्यन्त प्रसन्न 108 - संक्षिप्त जैन महाभारत
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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