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________________ प्रणाम कर उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की। इस भीषण पराजय से दुर्योधन के मन में अपने मान-भंग की शल्य घर कर गई। अपनी इस शल्य को पूर्ण करने हेतु दुर्योधन ने घोषणा की कि जो कोई भी पांडवों का वध कर देगा, उसे आधा राज्य पुरस्कार में दिया जायेगा। इस घोषणा को सुनकर एक दुर्बुद्धि व्यवसायी कनकध्वज ने दुर्योधन के सामने ऐसा कर दिखाने की प्रतिज्ञा की कि मैं या तो सात दिन के अंदर पांडवों को नष्ट कर दूंगा अन्यथा प्रज्वलित अग्नि में जलकर अपने प्राण त्याग दूंगा। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कनकध्वज 'कृत्याविद्या' की सिद्धि के लिए साधना हेतु वन में जा पहुँचा। तब नारद ने इसकी सूचना पांडवों को देकर उन्हें सावधान कर दिया। तभी एक मायावी देव द्रौपदी को हर ले गया। उसका पीछा करते सभी पांडव एक जलाशय पर पहुँचे व अपनी तृषा को शांत करने हेतु उस जलाशय का जल पी गये। जिससे सभी पांडव वहीं मूर्छित होकर गिर पड़े। इसी समय कनकध्वज को कृत्या साधना रूपी विद्या सिद्ध हो गई। तब वह विद्या बोली- मुझे आज्ञा दें। तब कनकध्वज ने उस विद्या को सभी पांडवों को मारने की आज्ञा दे दी। किन्तु जब वह विद्या पांडवों की खोज करते-करते उस जलाशय के निकट पहुंची, तो उसने सभी पांडवों को मृतप्राय देखा। तभी वह मायावी देव जो द्रौपदी को ले भागा था उस विद्या से बोला- कनकध्वज ने तुम्हें व्यर्थ ही कष्ट दिया है। वे पांडव तो स्वतः ही निहत हो चुके हैं। अतः तुम जाकर उसी नीच कनकध्वज का वध कर डालो। विद्या को यह उक्ति ठीक लगी व वह लौटकर कनकध्वज का वधकर अपने स्थान को चली गई। तब उस देव ने पांडवों के शरीर पर गंधोदक की बूंदें छिड़ककर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया। वास्तव में यह देव सौधर्म इन्द्र का स्नेह पात्र था; जो पांडवों की धर्माराधना से प्रभावित होकर उनकी सहायता करने आया था। तब उस देव ने द्रौपदी को भी पांडवों को सौंप दिया व वहां से गमन कर गया। संक्षिप्त जैन महाभारत - 101
SR No.023325
Book TitleSankshipta Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakashchandra Jain
PublisherKeladevi Sumtiprasad Trust
Publication Year2014
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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