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________________ विद्वान है; परंतु आत्मा को क्या लाभ हो सकता ? देखा तो कुछ भी नहीं। आज प्रसंगवश रेलगाडी से उतर के भटिंडा राधाक्रष्ण मंदिर में बहुत दूर से आन के डेरा किया था सो एक जैन शिष्य कं हाथ दो पुस्तक देखे तो जो लोग दो चार अच्छे विद्वान जो मुझसे मिलने आए थे कहने लगे कि ये नास्तिक जैन ग्रंथ हैं, इन्हें नहीं देखना चाहिए। अन्त में उनका मूर्खपणा उनके गले उतार के निरपेक्ष बुद्धि के द्वारा विचारपूर्वक जो देखा तो वे लेख इतने सत्य और निष्पक्ष मुझे दिख पडे कि मानो एक जगत छोडकर दूसरे जगत में आन खडे हो गए। आवाल्यकाल आज ७० वर्ष में जो कुछ अध्ययन किया और वैदिक धर्म बांधे फिरा वह व्यर्थ सा मालूम होने लगा। 'जैन तत्त्वादर्श' व 'अज्ञान तिमिर भास्कर' इन दोनों ग्रन्थों को तमाम रात्रिदिन मनन करता, व ग्रन्थकार की प्रशंसा करता भटिंडे में बैठा हूं। सेतुबंध रामेश्वर यात्रा से अब में नेपाल देश चला हूं। परंतु अब मेरी ऐसी असामान्य महती इच्छा मुझे सताय रही है कि किसी प्रकार से भी एक वार आपका और मेरा परस्पर संदर्शन हो जाएं। मैं कृतकर्मा हो जाऊं। महात्मन् ! हम संन्यासी हैं, आजकल जो पांडित्य कीर्तिलाभ द्वारा सभा विजयी होके राजा - महाराजों में ख्याति प्रतिपात्ति कमा के नाम पंडिताई को हासिल किया है, आज हम यदि एकदम आप से मिलें तो वह कमाई कीर्ति चली जाएगी। ये हम खूब समझते व जानते हैं। परंतु हट धर्म भी शुभ परिणाम, शुभ आत्मा का धर्म नहीं। आज में आपके पास इतना मात्र स्वीकार कर सकता हूं कि प्राचीन धर्म, परम धर्म अगर कोई सत्य धर्म हो तो जैन धर्म था। जिसकी प्रभा नाश करने को वैदिक धर्म व पट शास्त्र व ग्रन्थकार खडे भये थे; परंतु पक्षपातशून्य होकर यदि कोई वैदिक शास्त्रों पर दृष्टि दे तो स्पष्ट प्रतीत होगा कि वैदिक वातें कही व ली गई वह सव जैन शास्त्रों से नमूना इक्कटी की है। इसमें संदेह नहीं कितनी बातें एसी हैं कि जो प्रत्यक्ष बिचार किए बिना सिद्ध नहीं होती है। संवत् १९४८ मिति आपाढ शुदि १० । पुनर्निवेदन यह है कि यदि आपकी कृपापी पाई तो एक दफा मिलने का उद्यम करुंगा। इति योगानंद स्वामी किंवा योगाजीवानंद सरस्वती स्वामी। આ પત્રની સાથે સ્વામી યોગજીવાનંદજીએ આચાર્ય મહારાજની સ્તુતિના રૂપમાં એક શ્લોક લખીને મોકલ્યો હતો. योगाभोगानुगामी द्विजभजनजनिः शारदारक्तिरक्तौ। दिगजेता जेतृजता मतिनुतिगतिभिः पूजितो जिष्णुजिकैः।। जीयाद्दायादयात्री खल बल दल नो लोललीलस्वलज्जः। केदारीदास्यदारी विमलमधुमदोद्दामधामप्रमतः॥ १॥ આ શ્લોક માળાબંધ કાવ્યમાં લેખકે યોજ્યો અને એની રચના એવી કળાથી કરી કે એના ૫૧ પ્રકારના અર્થ ઉપજાવી શકાય. વિ.સં. ૧૯૫૩માં સનખતરામાં નૂતન જિનમંદિરની અંજનશલાકા પ્રતિષ્ઠા ૩૦૨ + ૧૯મી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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