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________________ 'भारतीय ज्ञानपीठ' संस्था द्वारा प्रकाशित हुआ है। दोनो भागों की पृष्ट संख्या क्रमशः ५६+५२२ एवं १२+४२० है। इसका पाँचवाँ संस्करण वी.नि.सं. २५२८ में छप चुका है जो इसकी उपयोगिता और लोकप्रियता का प्रमाण है। त्रिलोक भास्कर द्वादशांग वाणी के दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत 'परिकर्म' एवं 'पूर्व' साहित्य में 'लो' के स्वरूप एवं विस्तार की व्यापक रूप से चर्चा है। जिनागम प्रणीत तिलोयपणात्ति, त्रिलोकसार, लोकविभाग, जम्बूद्वीप पण्णत्ति संगहो आदि ग्रंथो के आधार से प्राप्त सामग्री को सुचारु रूप एवं अत्यंत सुस्पष्ट रूप से संचित करके यह सर्वगुण सम्पन्न कृति बनाई है। इसमें सभी वर्णन प्रामाणिक रूप से उपलब्ध है। विधानादि के लिये नक्शे सर्वांग पूर्ण, सुंदर एवं स्पष्ट वनाये गये हैं। चार्ट, चित्र, सारणी, भौगोलिक, ज्योतिष एवं लोकसंबंधी विभिन्न नक्शों तथा संख्याओं के कारण इस ग्रंथ की उपयोगिता अतुलनीय है। प.पू. माताजी ने इस ग्रंथ की रचना करके करणानुयोग के सागर को गागर में भर दिया है। उनका यह उपक्रम सर्वोत्तम, सर्वग्राह्य एवं सर्वप्रिय है, साथ ही अभूतपूर्व, अमर एवं आधारभूत है। वर्तमान में वी.नि.सं. २५२५ में प्रकाशित द्वितीय संस्करण डिमाई आकार के ३०० पृष्ठों के साथ उपलब्ध है। ज्ञानामृतः प.पू. माताजी की हिंदी में लिखित रचनाओं में 'ज्ञानामृत' एक अनुपम ग्रंथ है जो तीन भागों में प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रंथ के प्रथम भाग के तीन संस्करण छप चुके हैं जो इसकी उपयोगिता और लोकप्रियता का प्रमाण है। ३३२ पृष्ठों में प्रकाशित ज्ञानामृत भाग १ में जैन आध्यात्म एवं जैनागम से संबंधित २५ शीर्षकों के साथ जैनविद्या का सार-संक्षेप जैन वाङ्मय के ४२ ग्रंथो के आधार पर प्रस्तुत किया है। इसमें षटखण्डागम की 'धवला' टीका के आधार पर ‘णमोकार मंत्रका अर्थ' का संक्षिप्त विवेचनात्मक लेख है। तत्पश्चात् ‘सागार धर्मामृत' के आधार पर 'गृहस्थधर्म' का विवेचन है। 'आत्मानुशासन' के आधार पर 'सम्यक्त्वसार', आ. कुंदकुंददेव के 'चारित्रप्राभृत' एवं श्री श्रुतसागरसूरिकृत टीका के आधार पर 'चारित्रप्राभृतसार एवं 'बोधप्राभृत सार', पद्मनंदि ‘पंचविंशतिका' के आधार पर उपासक एवं दान पर स्वतंत्र लेख हैं। इसके बाद आ. कुंदकुंददेव के 'समयसार' ग्रंथ एवं श्री अमृतचन्द्राचार्य एवं श्री जयसेनाचार्य की टीकाओं के आधार पर 'समयसार का सार' नामक मननीय लेख हैं। फिर 'आदिपुराण' के आधार पर 'सप्तपरम स्थान' का ज्ञान कराया है। तदनंतर ૨૭૨ + ૧૯ભી અને ૨૦મી સદીના જૈન સાહિત્યનાં અક્ષર-આરાધકો
SR No.023318
Book TitleJain Sahityana Akshar Aradhako
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMalti Shah
PublisherVirtattva Prakashak Mandal
Publication Year2016
Total Pages642
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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