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________________ ૭૨ समरसिंह। प्रतिष्ठा करवाई गई । इस महोत्सव का सांगोपांग विशद वर्णन करना लोहे की लेखनी की तुच्छ शक्ति के बाहर की बात है । सोलह माना यही कहावत चरितार्थ है 'गिरा अनयन नयन बिनु बानी'। जिस आंखने देखा वह तो बोल सकती नहीं और जो बानी बोलना चाहती है उसने देखा कहाँ ? चारों दिशाओं की मोर प्रसारित होती हुई कीर्ति को वटोर कर एक जगह रखने के उद्देशसे ही मानो देशलशाहने ध्वजदंड और कलश को स्थापन किया था। उस मन्दिर के इर्द गिर्द कोट बनवाया गया जिनमें रही हुई २४ देवकुलिकाएँ किसी विबुधभवन की याद दिला रही थी। इससे जैन धर्म की बहुत अधिक प्रभावना तथा वृद्धि हुई। राजा और प्रजा दोनों पर जोरदार असर पड़ा। तदन्तर देशलशाह इन कार्यों को कर आचार्य श्री सिद्धसूरि के साथ वहाँसे रवाने होकर गुजरात प्रान्तके पाटण नगर में पहुँचे । क्यों कि वहाँ हमारे चरितनायक समरसिंह पाटण राज्य में सूबेदार के उच्चपद पर अधिकारी थे । पाटण व्यापार का भी केन्द्र था अतः देशलशाह भी वहीं निवासकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। आचार्यश्री सिद्धसूरि भी उस समय पाटण में विराजकर मोक्षमार्ग का माराधन कर रहेथे । १ क्रमेण जलयात्रादि महोत्सवपुरस्सरम् । प्रतिष्ठालग्ने समयं सिद्धसूरिसाधयत् ॥ ६४७ ॥ २ साधुविधाय विविधैरथ धर्मकृत्यैः । श्री जिनशासन समुन्नतिमत्र देशे ॥ श्री गूर्जरावनिधिभूषणपत्तनेऽसौ । साध जगाम गुरुभिर्गुरुकार्यसिद्धौ ॥९५३॥
SR No.023288
Book TitleSamar Sinh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherJain Aetihasik Gyanbhandar
Publication Year1931
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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