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________________ सिरि भूवलय यशस्वति देविय मगळाद ब्राह्मीगे । असमान कर्नाटकद ॥ रिसियु नित्यवु अरवतनाल्कक्षर । होसेद अंगैय भूवलय ॥ १-२३॥ यशस्वतीदेवी की पुत्री ब्राह्मी की हथेली में ६४ अक्षरों को लिखा । करुणेयं बहिरंग साम्राज्यलक्ष्मिय । अरुहनु कर्माटकद ॥ सिरिमात यत्नदे ओंदरिं पेळिद । अरवतनाल्अंक भूवलय ।। १-३०।। एक से लेकर ६४ तक इस भूवलय को साम्राज्य लक्ष्मी की करुणा से अरहन ने बहिरंग रूप से कर्नाटक सिरि माता की कृपा से कहा । धर्मध्वजदरोळु केत्तिद चक्र। निर्मलदष्टु हूगळं ।। स्वरमनदलगळ ऐवतोन्दु सोन्नेयु । धर्मद कालुलक्षागळे ॥ १६-५॥ धर्म ध्वजा में अंकित चक्र पुष्पों की भाँति निर्मल हैं जिसमें ५१ शून्य और सवा लाख है आ पाटियंकदोळ ऐदु साविर कूडे । श्री पादपद्मदंगदल ।। १-६६॥ इन अंकों में ५००० और मिलाने हैं। इस चक्र में ५१०२५०००+ ५०००=५१०३०००० दल बन कर, फिर वही अंक बन कर, अक्षर बन कर गणित पध्दति के अनुसार रचा गया इसे ही कुमदेन्दु विश्व काव्य कहते हैं । इस अनादि चक्र बंध काव्य उस समय से सभी तीर्थंकर के समय में उनके गणधरों के द्वारा प्रचारित होकर आखिरी तीर्थंकर महावीर स्वामी तक सुरक्षित रहा। महावीर स्वामी ने ज्ञानोत्पत्ति पश्चात पिछले तीर्थंकरों की भाँति ही अपनी पिछली भाषा को छोड़ इस सर्व भाषा मयी भाषा में अपने दिव्योपदेश को प्रदान करने लगे। उस सर्व भाषा मयी भाषा कन्नड का परिचय न होने के कारण उनके शिष्य दिग्भ्रमित होने लगे । इस समय में महावीर के शिष्यों में सेन गण के गौतम वंशी इन्द्रभूति नाम के ब्राह्मण कन्नडिगा होने के साथ-साथ सकल शास्त्र पारंगत थे। इन्होंनें उस समय के महावीरोपदेश को समझ कर भक्तों को समझाया। यदि आप महावीरों के उपदेशों के समय न होते तो उनके (महावीर) के उपदेश सार्थक नहीं होते । इन्द्रभूति 77
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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