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________________ - सिरि भूवलय) रसवनु हूविनिं मर्दिसि पुटुवुदु । होस रस घुटिकेयु कट्टि ॥ रससिद्धियागे सिद्धांतरसायन । होस कल्पसूत्र वैद्यवद ॥ इस प्रकार विस्तृत रूप से रसपाद प्रक्रिया को निरूपित करते हैं । आकाशगमन आकाश गमन की साधन मानस्तंभ को १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ० इस रीति से पहचान कर उनके लाभों को घणे, गरुड, गज, मकर, वर्धमान, वज्र, सिंह, कलश, अश्व, जिनभवन आदि है, इनको क्रम से चैत्यवृक्ष, अश्वत्थ, सप्तच्छद, बूरुग, जंबु, हब्बे, कडवु, नेळलु, शिरीष, पलाश, राजद्रम आदि नामों से विवरित करते हैं । और फिर नीलोत्पल रस से पक्व (पका) पादरस के लेप से जलगमन साधन विद्या का विवरण करते हैं तथा पनसपुष्प-रस के संयोग से आकाश गमन के साधन का विवरण करते हैं । तनुवनाकाशके हारिसि निलिसुव। घनवैमानिक दिव्यकाव्य ॥ पनसपुष्पद काव्य विश्वंभर काव्य । जिनरूपिन भद्रकाव्य ॥ नेनेकोनेवोगिसि भव्य जीवरनेल्ल । जिनरूपिगैदिप काव्य ॥ रणकहळेय कूग निल्लवागिप काव्य। धनुभव खेचर काव्य ॥ इस प्रकार यह काव्य युद्धनिरोधि काव्य है ऐसा कहते हैं । अन्य भारतीय वैद्य ग्रंथों में रोग का कारण वायु, पित्त, श्लेष्म आदि को माना जाता है । परन्तु यहाँ रोग का कारण अणु-परमाणु का अणक ही कारण है ऐसा आधुनिक संशोधन के क्रम से सम्मत हो कर गुणवृद्धियागुव गणितवनरियदे । अणुपरमाणु जीव गळ ॥ अणकदिं पुटुव विपरीत रोगद । एणिकेयनरियलशक्य ॥ ऐसा कहा गया है । संपूर्ण पुस्तक में विस्तृत रूप से कहे गए वैद्य विषयों की चर्चा करना असंभव कार्य है । कुमुदेन्दु सिरि भूवलय में लौह और धातु के भस्म से तैयार कर लोकोपकार का कार्य करने की बात कहते हैं । रस-विष-गंधकादि को शुद्ध कर जितना उपलब्ध 398
SR No.023254
Book TitleSiri Bhuvalay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarna Jyoti
PublisherPustak Shakti Prakashan
Publication Year2007
Total Pages504
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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