SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप में विवक्षित या संगत रहता है, पर स्वयं तक सीमित न रहकर व्यंग्यार्थ रूप में परिणत होकर पूर्णता प्राप्त करता है । इसी को अभिधामूलक ध्वनिकाव्य भी कहते हैं । इसके दो भेद होते हैं - १. असंलक्ष्यक्रमध्वनिकाव्य २. संलक्ष्यक्रमध्वनिकाव्य | संलक्ष्यक्रमध्वनि का क्षेत्र रस, भावादि है । अतः इस ध्वनि का क्षेत्र गरिणत होने के कारण विद्वानों ने इसे एक रूप में ही स्वीकार किया है क्योंकि एक संभोग शृंगार के एक भेद में परस्पर आलिंगन, अधरपान, चुम्बन आदि अनेक भेद हैं तो भला विभाव आदि की विचित्रता के साथ मात्र इसी रस की गणना कैसे सम्भव हो सकती है । वाच्यार्थ तथा व्यंग्यार्थ के बीच के क्रम का अवबोध जिसमें हो जाता है या संलक्षित होता है वहाँ संलक्ष्यक्रमध्वनि होती है । जिस प्रकार घंटे के बजने पर एक जोरदार ठनाका होता है तथा फिर क्रमशः शनैःशनैः मधुर मधुर गूँज सुनाई पड़ती रहती है, ठीक इसी प्रकार वाच्यार्थ के प्रतीत होने के बाद जहाँ क्रम से व्यंग्य अर्थ प्रतीत होता है वहाँ संलक्ष्यक्रमध्वनि होती है । इसके भी तीन भेद होते हैं - १. शब्दशक्त्युद्भव ( ४३ )
SR No.023197
Book TitleSahitya Ratna Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1989
Total Pages360
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy