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________________ उक्त श्लोक में द्वितीय बार आये हुए कदली, करभ आदि पद यदि मुख्यार्थ का ही बोध न करें तो पुनरुक्ति दोष माना जाएगा। अतः वे मुख्यार्थ में बाधित होकर 'जाड्यगुण विशिष्ट कदली' आदि का बोधन करते हैं, फलस्वरूप यहाँ अर्थान्तरसंक्रमित ध्वनि स्वीकार की जाती अत्यन्त तिरस्कृत वाच्य ध्वनि में वाच्यार्थ आपात सार्थक प्रतीत होता है किन्तु मूलतः वह अपने आप में असंगत होकर सर्वथा तिरस्कृत होकर व्यंग्यार्थ का कारण बनता है। जैसे 'निश्वासान्ध इवादर्शश्चन्द्रमा न प्रकाशते'-यहाँ अन्ध' पद अपने मुख्यार्थ (दृष्टिशून्यता) में सर्वथा अनुत्पन्न है और एकमात्र प्रकाशरहित अर्थ का ही बोधक है-अतः अत्यन्त तिरस्कृत वाच्य ध्वनि है । संस्कृत पद का अर्थ हैचन्द्रमा बिल्कुल नहीं चमक रहा है । ऐसा लगता है जैसे श्वासोच्छवास से अन्धा (मलिन) दर्पण लटक रहा हो। यहाँ व्यंग्य से स्पष्ट है-मलिनता (अप्रकाशता) का आधिक्य । यही लक्षणा का प्रयोजन भी है। विवक्षितान्यपरवाच्य ध्वनिकाव्य में 'वाच्यार्थ' अपने ( ४२ )
SR No.023197
Book TitleSahitya Ratna Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandiram
Publication Year1989
Total Pages360
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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