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________________ www सोमसेनभट्टारकविरचितसूर्य जैसे कमलोंका विकास करनेवाला है वैसे ही जो हरिवंशरूपी कमलोंका विकास करनेको एक अद्वितीय सूर्य हैं, जो कोई गुणोंसे युक्त धर्मात्मा पुरुष हैं उनके वे सदा आश्रय-स्थान हैं-उनकी रक्षा करनेवाले हैं, ज्ञान-ध्यानको बढ़ानेवाले हैं और जिनकी मुनिजन सेवा करते हैं वे श्रीमुनिसुव्रतनाथ मेरे मनोवांच्छित कार्योंकी सिद्धि करें ॥२॥ वन्दे तं पार्श्वनाथं कमठमदहरं विश्वतत्त्वप्रदीपं, ___कर्मारिनं दयालु मुदितशतमखैः सेव्यपादारविन्दम् । शेषेशो यस्य पादौ शिरसि विधृतवानातपत्रं च मूर्भि, मुक्तिश्रीर्यस्य वाञ्च्छां प्रतिदिनमतुलां वाञ्च्छति प्रीतियुक्ता ॥३॥ मैं उन पार्श्वनाथ भगवानकी वन्दना करता हूँ जो कमठासुरके मदको चूरचूर करनेवाले हैं, सम्पूर्ण तत्त्वोंको प्रकाश करनेके लिए दीपक हैं, कर्म-शत्रुओंकों मारकर दूर फेंकनेवाले हैं, छोटे बड़े सब जीवों पर दया करनेवाले हैं, जिनके चरण-कमलोंकी बड़े बड़े इंद्र सेवा करते हैं, जिनके चरणोंको शेषनाग अपने शिरपर धारण करता है उनके सिरपर छत्र धारण किये खड़ा है और जिनकी मोक्ष-लक्ष्मी प्रीतिपूर्वक प्रतिदिन अनुपम चाह करती रहती है ॥ ३ ॥ नौमि श्रीवर्द्धमानं मुनिगणसहितं सप्तभङ्गप्रयोगै, निर्दिष्टं येन तत्त्वं नवपदसहितं सप्तधाऽऽचारयुक्त्या। सुज्ञानक्ष्माजबीजं नवनयकलितं मोक्षलक्ष्मप्रदाय, सुप्रामाण्यं परैकान्तमतविरहितं पश्चिमं तं जिनेन्द्रम् ॥ ४ ॥ जो मुनियोंके समूहसे युक्त हैं, जिन्होंने प्रखर युक्तियों के साथ साथ अस्ति, नास्ति आदि सप्तभंगोंके द्वारा नव पदार्थ और सात तत्त्वोंका उपदेश दिया है, जैसे बीज वृक्षकी उत्पत्तिका कारण है वैसे ही जो परमात्मा केवलज्ञानकी उत्पत्तिमें कारणभूत हैं, नव प्रकारके नयोंसे युक्त हैं, प्रमाण रूप हैं, मोक्ष-लक्ष्मीके देनेवाले हैं और अनेकान्तरूप हैं उन श्रीवर्धमान अन्तिम तीर्थकरको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ४॥ श्रीभारतीमखिललोकसुखावधारिणी, मानन्दकन्दजननी जनजाड्यनाशिनीम् । तत्त्वावकाशकरिणीं वरबुद्धिदायिनी, वन्दे हितार्थसुखसाधनकार्यकारिणीम् ॥ ५॥ मैं सरस्वती-देवीकी अपने हृदयमें उपासना करता हूँ जो सम्पूर्ण संसारी जनोंके सुखका निश्चय करानेवाली है, उनको आनन्द उत्पन्न करनेवाली है, उनके अज्ञानान्धकारका नाश करनेवाली है, तत्त्वोंका प्रकाश करनेवाली है, सद्बुद्धि देनेवाली है और प्राणियोंके हितके अर्थ सुखका उपाय दिखानेवाली है ॥ ५॥
SR No.023170
Book TitleTraivarnikachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomsen Bhattarak, Pannalal Soni
PublisherJain Sahitya Prasarak Karyalay
Publication Year1924
Total Pages440
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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