SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत 'ससिपुण्डरीयधवलं, निययकुलं 'उत्तमं कयं मलिणं । परमहिलाए कएणं, 'वम्महअणियत्तचित्तेणं ।। 160।। अधिद्धि 'अहो अकज्जं, 'महिला 'जं तत्थ पुरिससीहाणं । 10अवहरिऊणवणाओ, "इहाणिया मयणमूढेण ।। 161 । । नरयस्स महावीही, कढिणा सग्गग्गला अणयभूमि । सिरियव्व'कुडिलहियया, 'वज्जेयव्वा हवइ नारी ।।162।। 'जापढमदिट्ठ 'संती, अमएण व मज्झ 'फुसइ अङ्गाई । सा परमसत्तचित्ता, "उच्चयणिज्जा 1 इहं 12जाया ।।163।। संस्कृत अनुवाद मन्मथाऽनिवृत्तचित्तेन, परमहिलायाः कृते । शशिपुण्डरीकधवलमुत्तमं, निजककुलं मलीनं कृतम् ||160।। ___ अहो अकार्यं धिग् धिग्, यत्तत्र पुरुषसिंहानां महिला । मदनमूढेन वनादपहृत्येहाऽऽनीता ||161।। नरकस्य महावीथिः, कठिना स्वर्गाऽर्गलाऽनयभूमिः । सरिदिव कुटिलहृदया, नारी वर्जयितव्या भवति ।।162।। सा प्रथमदृष्टा सती, ममाङ्गान्यमृतेनेव स्पृशति । परमसत्त्वचित्ता सेहोत्त्यजनीया जाता ।।163।।। हिन्दी अनुवाद काम के आधीन चित्त से मैंने परस्त्री हेतु चन्द्र और पुण्डरीक = श्वेतकमलसमान निर्मल, उत्तम अपने कुल को कलंकित किया । (160) अहो ! मेरे दुष्कृत्य को धिक्कार हो, पुरुषों में सिंहसमान उन पूज्य की स्त्री (= सीताजी) को काम से मोहित मैं वन में से अपहरण करके यहाँ लाया । (161) __ नरक के राजमार्ग समान, स्वर्ग के द्वार बंद करने में मजबूत श्रृंखला समान, नदी के समान कुटिल हृदयवाली स्त्री त्याग करने योग्य है । (162) जो प्रथम नजर में देखने पर मेरे अंगों को मानों अमृत से स्पर्श करती हो वैसा अनुभव होता था, परन्तु परमसात्त्विक चित्तवाले वे सीताजी अब मुझे • त्याग करने योग्य हुए हैं । (163) ... - १७५
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy