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________________ प्राकृत 'जइ वि य इच्छेज्जममं, संपइ एसा विमुक्कसब्भावा । 'तह वि य 10 'जायइ धिई, अवमाणसुदुमियस्स ।।164।। ___ भाया मे आसि 'जया, 'बिभीसणो निययमेव अणुकूलो। 'उवएसपरो तइया, 13न 10मणोपीइं 12समल्लीणो ।।165।। बट्टा य 'महासुहडा, अन्ने विविवाइया 'पवरजोहा । 'अवमाणिओ य रामो, संपइ मे 1 केरिसी पीई ।।166।। 'जइ वि सम्मपेमि अहं, रामस्स 'किवाए जणयनिवतणया । श्लोओ'दुग्गहहियओ, 10असत्तिमन्तं गणेही मे ।।16711 संस्कृत अनुवाद यद्यपि च सम्प्रति, विमुक्तसद्भावैषा मामिच्छेत् । तथापि चाऽपमानसुदूनस्य, धृतिर्न जायते ||164।। यदा मे भ्राता बिभीषणो, नियतमेवाऽनुकूल उपदेशपर आसीत् । तदा मनः प्रीतिं न समालीनम् ।।165।। महासुभटाश्च बद्धाः, अन्येऽपि प्रवरयोधा विपादिता । रामश्चऽपमानितः, सम्प्रति मम कीदृशी प्रीतिः ? ||166।। यद्यप्यहं रामस्य कृपया जनकनृपतनया समर्पयामि । दुर्ग्रहहृदयो लोकः, मामशक्तिमन्तं गणिष्यति ।।167।। हिन्दी अनुवाद यद्यपि अब सन्दाव-सदाचार का त्यागकर वे सीताजी मेरी इच्छा करें तो भी अपमान से दुःखी मुझे धीरज नहीं रहा है । (164) . जब मेरे भाई बिभीषण मुझे सदा अनुकूल (सत्य) उपदेश देते थे तब मुझे उनकी बात पसन्द नहीं आती थी । (165) मैंने उनके महान् सुभटों को कैद किया, दूसरे भी उत्तम योद्धाओं को मार डाला और राम का भी अपमान किया, तो अब मुझ पर प्रीति कैसे होगी? 1(166) यद्यपि मैं राम के प्रति स्नेह से जनकराजा की पुत्री सीताजी को वापिस लौटा दूं तो दुराग्रही लोक मुझे शक्तिहीन गिनेंगे । (167) HD १७६
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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