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________________ प्राकृत 'ताव य जीवामि अहं, 'जाव य एयाण पुरिससीहाणं । 1°न "सुणेमि मरणसदं, 'उच्चयणिज्जं अयण्णसुहं ।।156।। 'सा जंपिऊण एवं, पडिया धरणीयले 'गया'मोहं । "दिट्ठा य रावणेणं, मरणावत्था 1 पयलियंसू ।।157।। मिउमाणसो 'खणेणं, जाओ 'परिचिन्तिउं समाढत्तो। 'कम्मोयएण बद्धो, 'कोवि"सिणेहो "अहो 1"गुरुओ ।।158।। 'धिद्धित्ति गरहणिज्जं, पावेण मए इमं कयं कम्मं । अन्नोन्नपीइपमुहं, "विओइयं 'जेणिमं मिथुणं ।।159। संस्कृत अनुवाद तावच्चाऽहं जीवामि, यावच्च पुरुषसिंहयोरेतयोः । उत्यजनीयमकर्णसुखं, मरणशब्दं न शृणोमि ||156।। सैवं जल्पित्वा धरणीतले , पतिता मोहं गता । रावणेन च. मरणाऽवस्था, प्रगलिताक्षु : दृष्टा ||157।। क्षणेन मृदुमानसो जातः, परिचिन्तयितुं समारब्धः । अहो, कर्मोदकेन बद्ध:, कोऽपि गुरुकः स्नेहः ||158।। धिग् धिगिति, पापेन मयेदं गर्हणीयं कर्म कृतं । येनाऽन्योन्यप्रीतिप्रमुखमिदं, मिथुनं वियोजितम् ।।159।। हिन्दी अनुवाद क्योंकि तभी तक ही मैं जीवित रहूँगी, जब तक पुरुषों में सिंहसमान इन दोनों के त्याग करने योग्य और कर्ण को प्रिय न लगे वैसे मरण के शब्द को नहीं सुनूँगी । (156) . इस प्रकार बोलकर सीताजी पृथ्वी पर गिर गईं और मूर्छित हो गयीं रावण ने भी मरणावस्था के नजदीक तथा आँसू गिरते हुए उन (सीताजी) को देखा । (157) एक क्षण में रावण कोमल मनवाले बने और विचार करना प्रारम्भ किया, अहो ! कर्मरूपी जल से बद्ध (इनका) कोई गाढ़ स्नेह है । (158) धिक्कार है कि पापी ऐसे मेरे द्वारा ऐसा निंदनीय कार्य किया गया, जिससे एक दूसरे पर अतिस्नेह रखते इस युगल का मैंने वियोग किया । (159) १७४
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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