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________________ सं. राज्ञा सुवर्णकारान् व्याहार्याऽऽत्मनो मुकुटे वज्राणि वैडूर्याणि रत्नानि चाऽरच्यन्त । हि. राजा ने सुवर्णकारों को बुलाकर अपने मुकुट में वज्र और वैडूर्यरत्नों को मण्डित किया । 7. प्रा. संपइ नरिंदेण सयलाए पिच्छीए जिणेसराणं चेइयाइं कराविआइं । सं. सम्प्रति नरेन्द्रेण सकलायां पृथ्व्यां जिनेश्वराणां चैत्यानि कारितानि । हि. सम्प्रति राजा ने सम्पूर्ण पृथ्वी पर जिनेश्वर भगवंतों के मन्दिर करवाये | 8. प्रा. तवस्सी भिक्खू न छिंदे, ण छिंदावए, ण पए, ण पयावए । सं. तपस्वी भिक्षुर्न छिन्द्यात्, न छेदयेत्, न पचेत्, न पाचयेत् । हि. तपस्वी भिक्षु (किसी का) छेद करे नहीं, (किसी के पास) छेद करवाये नहीं, (स्वयं) पकाये नहीं और (किसी के द्वारा भी) पकवाये नहीं । 9. प्रा. समणोवासगो पइट्ठाए महोच्छवे सव्वे साहम्मिए भुंजावेईअ । सं. श्रमणोपासकः प्रतिष्ठाया महोत्सवे सर्वान् साधर्मिकानभोजयत् । हि. श्रावक ने प्रतिष्ठा के महोत्सव में सभी साधर्मिकों को भोजन करवाया । 10. प्रा. जइ पिआ पुत्ते सम्म पढावतो, तो वुढत्तणे सो किं एवंविहं दुहं लहेन्तो ? | सं. यदि पिता पुत्रान् सम्यगपाठयिष्यत्, ततो वृद्धत्वे स किमेवंविधं दुःखमलप्स्यत् ? । हि. जो पिता ने पुत्रों को अच्छी तरह पढाया होता, तो वृद्धावस्था में वह क्या इस प्रकार के दुःख प्राप्त करता ? | 11. प्रा. नरिंदेण तत्थ गिरिम्मि चेइअं निम्मविअं । सं. नरेन्द्रेण तत्र गिरौ चैत्यं निर्मापितम् । हि. राजा द्वारा वहाँ पर्वत पर मन्दिर बनवाया गया । 12. प्रा. खमियव्वं खमावियव्वं, उवसमियव्वं उवसमावियव्वं, जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा, जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा, तओ अप्पणा चेव उवसमियव्वं । सं. क्षन्तव्यं क्षमितव्यम्, उपशान्तव्यमुपशमितव्यम्, य उपशाम्यति तस्यास्त्याराधना, यो नोपशाम्यति तस्य नास्त्याराधना, तत आत्मनैवोपशान्तव्यम् । १०८
SR No.023126
Book TitleAao Prakrit Sikhe Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysomchandrasuri, Vijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2013
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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