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________________ (१६) मूल तथा भाषांतर. अवश्य सिद्धिमाज जाय छे. तथा तमस्तमा नामनी सातमी पृथ्वीने विषे जघन्यथी अने उत्कर्षथी पण मनुष्य बे भवने ज पूर्ण करे छे. १५. दुहजुगलि तिरिअमणुआ,दुभवा भवणवणजोइकप्पदुगे॥ रयणप्पहभवणवणे, दुहृदुभवअसन्निपजतिरिओ ॥१६॥ मूलार्थ-जुगलिया तिर्यंच अने मनुष्य भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क अने पहेला बे कल्पोने विषे उत्कृष्टथी तथा जघन्यथी बेज भवने पूरे छे (करै छे) तथा पर्याप्त असंज्ञी तिर्यंच रत्नप्रभा, भवनपति अने व्यंतरने विषे पण जघन्य तथा उत्कृष्टथी बे भवज पूरे (फरे) छे १६. टीकार्थ-युगलिया तिर्यंचो अने मनुष्यो जघन्यथी अने उत्कृष्टथी एम बन्ने प्रकारे भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क तथा प्रथमना बे कल्पने विपे उत्पन्न थया सता बे भवने ज पूरे छे, केमके भवनपत्यादिकथी चवीने तेओने पाछो यु गलियाने विषे उत्पत्तिको संभव नथी. तथा रत्नप्रभा नागनी पहेली नरकने विषे अने भवनपति तथा व्यंतरने विपे पर्याप्त असंही तिर्यंच उत्पन्न थाय तो ते पण जघन्य अने उत्कर्पथी बे भवने ज पूरे छे. केमके त्यांथी नीकळेला असंज्ञी तियेच थता नथी. १६. पजसन्नितिरिनरेसु य, सहसारंता सुरा य छन्निरया । अडभव सत्तमनिरया, तिरिए छभव च उ पुन्नाऊ ॥१७॥ मूलार्थ-सहस्रार ( आठमा ) देवलोक मुधीना देवताओ अने पहेली छ नरकना नारकीओ पर्याप्त संज्ञी तिर्यच अने मनुष्यने विषे उत्कृष्टथी आठ भव पूरै छे, तथा सातमी पृथ्वीना नारकीओ (जघन्य आयुष्यवाला) पर्याप्त संज्ञी तिर्यचने विष उत्कृष्टथी छ
SR No.023119
Book TitlePushpa Prakaran Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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