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________________ (7) 'तपस्यमानान्ब्रह्म स्वयंभवम्यानपत्त ऋषयोऽमवन्। तदृषीणामृषित्वम्" यहां ऋषि शब्दका निर्वचन प्राप्त है। स्वयंभू ब्रह्माने तपस्या करते हुए स्वयं इन्हें देखा। इसलिए ये ऋषि कहलाये तथा यही ऋषिका ऋषित्व है। ऋषि शब्दमें ऋष् दर्शने धातुका योग स्पष्ट है। निरुक्तमें भी ऋषि शब्दको ऋषधातुसे ही निष्पन्न माना है।2 आरण्यक ग्रन्थोंके उपर्युक्त निर्वचनोंसे स्पष्ट है कि इन ग्रंथोंमें भी निर्वचनकी प्रक्रिया वैज्ञानिक रही है। ऐतिहासिक एवं विविध अर्थानुसंधान में निर्वचनगत ध्वन्यात्मक औदासिन्य स्पष्ट है। सन्दर्भ संकेत 1- ऐoआ01/113.2 - ऐ0आ0 2 1114,3- नि02 15 (शरीरंशृणातेः) 4- ऐ0आ0 2 1113,5 - ऐ० आ0 2 1114,6- ऐo आ0 2 1116,7- ऐ० आo 2 12 11,8- ऐ० आ0 2 12 11,9- ऐ० आ0 2 12 12, 10- ऐ० आ0 2 12 12, 11 - तै0 आo 219 13 -"तद् यदेनांस्तपस्यमानान् ब्रह्म स्वयंभ्वभ्यानर्षत्त ऋषयोडभवन् तदृषीणामृषित्वमिति विज्ञायते ।। (ऋषिः दर्शनात्) नि0 2 13 | (घ) उपनिषदों में निर्वचनों का स्वरूप उपनिषद् ब्रह्मवोधक शास्त्र है। इसे वेदान्त भी कहा गया है। प्रत्येक वेदके अलग अलग उपनिषद् मिलते हैं । उपनिषदोंमें भी निर्वचन की उपलब्धि होती है। निर्वचन शास्त्रकी परम्परामें उपनिषदोंके निर्वचन का परिदर्शन भीआवश्यक होगा। उपनिषदोंसे सम्बद्ध निर्वचनोंके कुछ उदाहरण :1. (क) ते होचुः क्वनु सोऽभूद्यो न इत्थमसक्तेत्ययमास्येऽन्त रितिसोऽयास्य आंगिरसोऽङ्गानां हि रसः।।' (ख) तं हांगिरा उद्गीथमुपासां चक्रे एतमुएवांगिरसं मन्यन्ते अंगाना रसः। इन अंशोंमें अंगिरसका निर्वचन प्राप्त होता है। दोनोंमें अंगिरसकोअंगोंका रस माना गया है। द्वितीय उद्धरणके अनुसार अंगिरस प्राण है- अंगिरा ऋषि :९ व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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