SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ने प्राणके रूपमें ही उद्गीथकी उपासना की । अतः इस प्राण को ही अंगिरस मानते हैं, क्योंकि यह सम्पूर्ण अंगोंका रस है । यह निर्वचन समासाश्रित है। 2. “एष एव उ वृहस्पतिर्वाग्वै वृहती तस्या एष पतिस्तस्मादु वृहस्पतिः ।। यहां वृहस्पति शब्द व्याख्यात है। इसके अनुसार वाक्को वृहती माना गया है तथा उसका यह पति वृहस्पति वृहतां पतिः वृहस्पतिः | यह निर्वचन भी समास पर आधारित है। 3. एष उ एव ब्रह्मणस्पति वाग्वै ब्रह्म तस्य एष पतिस्तस्मादु ब्रह्मणस्पतिः ।। इस उद्धरणमें ब्रह्मणस्पतिः शब्दका निर्वचन प्राप्त होता है। वाग्को ब्रह्म कहते हैं अर्थात् ब्रह्म वाक्का वाचक है। तथा उस ब्रह्म (वाक) के पति को ब्रह्मणस्पति कहा जाता है। यह निर्वचनभी समास पर आधारित है। 4. “एष उ एव साम वाग्वैसामैष सा चामश्चेति तत्साम्नः सामत्वम् । यहां साम शब्दका निर्वचन हुआ है। इसके अनुसार वाक् ही साम है तथा यह अम प्राण है। सा + अम साम कहलाया। यह सामका सामत्व है। यहां प्रतिपद निर्वचन हुआ है। इसे अर्थ निर्वचन माना जायेगा। 5. “एष उ वा उद्गीथ प्राणो वा उत्प्राणेन हीदं सर्वमुत्तब्धं वागेव गीथोच्च गीथाचेति स उद्गीथः । यहां उद्गीथका निर्वचन प्राप्त है- यह ही उद्गीथ है। प्राण ही उत् है, प्राणके द्वारा ही यह सब उतब्ध है। वाक् ही गीथ है, वह उत् है और गीथा भी, इसलिए उद्गीथ कहलाया । इसे भी अर्थ निर्वचन माना जायेगा। "तेन तं ह वृहस्पतिरूद्गीथमुपासां चक्र एतमु एव वृहस्पतिं मन्यन्ते वाग्धि वृहती तस्या एष पतिः।।' यहां भी वृहस्पतिका निर्वचन प्राप्त होता है - वृहस्पतिने उस प्राण के रूप में उद्गीथकी उपासना की। लोग इस प्राणको ही वृहस्पति मानते हैं, क्योंकि वाक्ही वृहती है और यह उसका पति है। वृहदारण्यकोपनिषद् में भी 6. ३० : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy