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________________ भद्रबाहुसंहिता तो शुभ होता । इस प्रकार वाराही संहिता में समस्त नक्षत्रों पर मंगल के विचरण का फल नहीं, जबकि भद्रबाहु संहिता में है । भ० सं० ( 19;1) में प्रतिज्ञानुसार मंगल के चार, प्रवास, वर्ग, दीप्ति, काष्ठा, गति, फल, वक्र और अनुवक्र का फलादेश बताया गया है । ; राहुचार का निरूपण भद्रवाहु संहिता के 20वें अध्याय में और वाराही संहिता के पांचवें अध्याय में आया है । वाराही संहिता में यह प्रकरण खूब विस्तार के साथ दिया गया है, पर भद्रबाहु संहिता में संक्षिप्त रूप से आया है । भद्रबाहु संहिता (20; 2, 57) में राहु का श्वेत, सम, पीत और कृष्ण वर्ण क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के लिए शुभाशुभ निमित्तक माना गया है, पर वाराही संहिता (5, 53-57 ) में हरे रंग का राहु रोगसूचक; कपिल वर्ण का राहु म्लेच्छों का नाश एवं दुर्भिक्षसूचक; अरुण वर्ण का राहु दुर्भिक्षसूचक कपोत, अरुण, कपिल वर्ण का राहु भयसूचक, पीत वर्ण का वैश्यों का नाशसूचक. दूर्वादल या हल्दी के समान वर्ण वाला राहु मरीसूचक एवं धूलि या लाल वर्ण का राहु क्षत्रियनाशक होता है । इस विवेचन से स्पष्ट है कि राहु के वर्ण का फल वाराही संहिता में अधिक व्यापक वर्णित है । वाराही संहिता के आरम्भिक 26-27 श्लोकों में जहाँ ग्रहण का ही कथन है, वहाँ भद्रबाहुसंहिता में आरम्भ से ही राहुनिमित्तों पर विचार किया गया है । वाराही संहिता (5; 42-52 ) में ग्रहण के ग्रास के सव्य, अपसव्य, लेह, ग्रसन, निरोध, अवमर्द, आरोह, अघ्रात, मध्यतम और तमोनय ये दस भेद बताये हैं तथा इनका लक्षण और फलादेश भी कहा गया है । भद्रबाहु संहिता में ग्रहण का फल साधारण रूप से कहा गया है, विशेष रूप से तो राहु और चन्द्रमा की आकृति, रूप-रंग, चक्र-भंग आदि निमित्तों काही वर्णन किया है । निमित्तों की दृष्टि से यह अध्याय वाराही संहिता के पांचवें अध्याय की अपेक्षा अधिक उपयोगी है । 70 भद्रबाहु संहिता के 21वें अध्याय में और वाराही संहिता के 11 वें अध्याय में केतुचार का वर्णन आया है । वाराही संहिता में केतुओं का वर्णन दिव्य, अन्तरिक्ष और भौम इन तीन स्थूल भेदों के अनुसार किया गया है । केतुओं की विभिन्न संख्यायें इसमें आयी हैं । भद्रबाहुसंहिता में इस प्रकार का विस्तृत वर्णन नहीं आया है । भ० सं० ( 21, 6-7-18) में केतु की आकृति और वर्ण के अनुसार फलादेश बताया गया है । केतु का गमन कृत्तिका से लेकर भरणी तक दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन तीन दिशाओं में जानना चाहिए। नौ-नौ नक्षत्र तक केतु एक दिशा में गमन करता है। वाराही संहिता ( 11; 53-59 ) में बताया है कि केतु अश्विनी नक्षत्र का स्पर्श करे तो अश्मक देश का विनाश, भरणी में किरातपति, कृत्तिका में कलिंगराज, रोहिणी में शूरसेन, मृगशिरा में उशीनरराज, आर्द्रा में मत्स्यराज, पुनर्वसु में अश्मकनाथ, पुष्य में मगधाधिपति, आश्लेषा में असिकेश्वर,
SR No.023114
Book TitleBhadrabahu Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jyotishacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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