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________________ प्रस्तावना 71 मघा नक्षत्र में अंगराज, पूर्वाफाल्गुनी में पाण्ड्यनरपति, उत्तराफाल्गुनी में उज्जयिनी स्वामी, हस्त में दण्डाधिपति, चित्रा में कुरुक्षेत्रराज, स्वाति में काश्मीर, विशाखा में इक्ष्वाकु, अनुराधा में पुण्ड्रदेश, ज्येष्ठा में चक्रवर्ती का विनाश, मूल में मद्रराज, एवं पूर्वाषाढ़ा में काशीपति का विनाश होता है । इस प्रकार प्रत्येक नक्षत्र का फलादेश पृथक्-पृथक् रूप से बताया गया है। केतुओं में श्वेतकेतु और धूम केतु का फल प्रायः दोनों ग्रन्थों में समान है । भद्रबाह संहिता के 22वें अध्याय में सूर्यचार का कथन है तथा यह प्रकरण वाराही संहिता के तीसरे अध्याय में आया है। भद्रबाहुसंहिता (22; 2) में बताया गया है कि अच्छी किरणों वाला, रजत के समान कान्तिवाला, स्फटिक के समान निर्मल, महान् कान्ति वाला सूर्य राजकल्याण और सुभिक्ष प्रदान करता है । वाराही संहिता (3; 40) में आया है कि निर्मल, गोलमण्डलाकार, दीर्घ निर्मल किरण वाला, विकाररहित शरीर वाला, चिह्न रहित मण्डलवाला जगत् का कल्याण करता है। दोनों की तुलना करने से दोनों में बहुत साम्य प्रतीत होता है। सूर्य के वर्ण का कथन करते समय कहा गया है कि अमुक वर्ण का सूर्य इष्ट या अनिष्ट करता है। इस प्रकरण में भद्रबाहुसंहिता (22; 3-4, 16-17) और वाराहीसंहिता (3; 25, 29, 30) में बहुत कुछ साम्य है। अन्तर इतना ही है कि वाराहीसंहिता में इस प्रकरण का विस्तार किया गया है, पर भद्रबाहु संहिता में संक्षेप रूप से ही कथन किया गया है। चन्द्रचार का कथन भद्रबाहुसंहिता के 23वें अध्याय में और वाराहीसंहिता के चौथे अध्याय में आया है। भ० सं० (23; 3, 4) में चन्द्र शृगोन्नति का जैसा विवेचन किया गया है, लगभग वैसा ही विवेचन वाराही संहिता (4; 16) में भी मिलता है। भद्रबाहुसंहिता (23; 15-16) में ह्रस्व, रूक्ष और काला चन्द्रमा भयोत्पादक तथा स्निग्ध, शुक्ल और सुन्दर चन्द्र सुखोत्पादक तथा समृद्धिकारक माना गया है। श्वेत, पीत, सम और कृष्ण वर्ण का चन्द्रमा क्रमशः ब्राह्मणादि चारों वर्गों के लिए सुखद माना गया है। सुन्दर चन्द्र सभी के लिए सुखदायक होता है । वाराही संहिता (4; 29-30) में बताया गया है कि भस्मतुल्य रूखा, अरुण वर्ण, किरणहीन, श्यामवर्ण चन्द्रमा भयकारक एवं संग्राम-सूचक होता है। हिमकण, कुन्दपुष्प, स्फटिकमणि के समान चन्द्रमा जगत् का कल्याण करने वाला होता है। उपर्युक्त दोनों वर्णन तुल्य हैं। भद्रबाहुसंहिता में चन्द्र शृगोन्नति का उतना विस्तार नहीं है, जितना विस्तार वाराही संहिता में है। तिथियों के अनुसार विकृत वर्ण के चन्द्रमा का जितना विस्तृत फलादेश भद्रबाहु संहिता (23; 9-14) में आया है, उतना वाराही संहिता में नहीं। इसी प्रकार चन्द्रमा में अन्य ग्रहों के प्रवेश का कथन भद्रबाहु संहिता (23; 17-19) में अपने ढंग का है। चन्द्रमा की वीथियों का कथन भ० सं० (22; 25-30) में है, यह
SR No.023114
Book TitleBhadrabahu Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jyotishacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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