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________________ अर्थात् लब्धि से अक्षरज्ञान है अर्थात् जो अविनाशी ज्ञान है, इसे ही श्रुतज्ञान कहा है। यह ज्ञान सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव के भी होता है। अब जानना यह है कि स्वयंसिद्ध अविनाशी ज्ञान क्या है? तो कहना होगा कि जो स्वयं के ज्ञान से, निजज्ञान से, स्वयं के अनुभव से सिद्ध है, वह स्वयं सिद्ध है। स्वयं सिद्ध ज्ञान में निम्नांकित विशेषताएँ होती हैं1. स्वयं सिद्ध ज्ञान, सबका समान होता है अर्थात् वह सार्वजनीन होता 2. इस ज्ञान में इन्द्रिय, मन व बुद्धि की अपेक्षा नहीं होती। कारण कि यह ज्ञान न इन्द्रिय से होता है, न बुद्धि से। अतः इन्द्रियज्ञान व बुद्धिज्ञान से परे का ज्ञान है, अलौकिक ज्ञान है, फिर भी परोक्ष है। इन्द्रिय ज्ञान और बुद्धि ज्ञान सब का समान नहीं होता है। प्रत्येक प्राणी के मति आदि ज्ञानों में विचार भेद और भिन्नता पाई जाती है, परन्तु स्वयंसिद्ध ज्ञान अर्थात् निजज्ञान भेद और भिन्नता से रहित होता है। इसे ही विवेक भी कहा जाता है। यह ज्ञान स्वाभाविक होता है, बुद्धि जन्य नहीं होने से अथवा स्वाभाविक होने से इसमें तर्क नहीं होता, अतः यह अकाट्य होता है। कहा भी है-“स्वभावोऽतर्कः" अर्थात् स्वभाव में तर्क नहीं हो सकता है। यह ज्ञान सब देश, सब काल में समान रहता है, देशकाल से प्रभावित नहीं होता है। अतः सार्वदैशिक, सार्वभौमिक, सार्वकालिक होता है। यह अपरिवर्तनशील, अविनाशी, अन्तरहित अनन्त होता है। 6. इस ज्ञान पर आधारित सिद्धान्त अकाट्य होने से सर्वमान्य होते हैं। 7. यह किसी की देन नहीं होता है। अतः व्यक्तिगत या वर्गगत नहीं होता है। इसे किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं होती है, यह स्वयं प्रमाण होता है। 9. यह नूतन पैदा नहीं होता है, स्वतः प्राप्त होता है, इसका प्रकटीकरण होता है। ज्ञानावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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