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________________ I तात्पर्य यह है कि स्वभाव-विभाव का ज्ञान श्रुतज्ञान है । अतः साधक के लिए पाँचों ज्ञानों में महत्त्व श्रुत ज्ञान का है । शान्ति, स्वाधीनता, प्रसन्नता, पूर्णता, चिन्मयता, अमरत्व, अविनाशी आदि जितने भी सिद्ध भगवान के, ईश्वर के गुण हैं, वे प्राणिमात्र को सदा सर्वदा, सर्वत्र इष्ट हैं । ये ही आत्मा के स्वभाव हैं । आगमों में जितना भी वर्णन है, वह जीव के स्वभाव को लक्ष्य में रखकर ही किया गया है और इसे ही श्रुतज्ञान कहा है। यह श्रुतज्ञान मिथ्यात्वी के भी होता है, परन्तु वह विपरीत रूप में होता है । उसका श्रुतज्ञान मिथ्यात्व के कारण अज्ञान रूप में परिणत हो जाता है, जो श्रुत अज्ञान कहलाता है । मिथ्यात्वी के भी जितना कषाय घटता है, उतना श्रुतज्ञान का आवरण घटता है, श्रुतज्ञान अधिक प्रगट होता है। परन्तु वह मिथ्यात्व के कारण अज्ञान का रूप धारण कर लेता है । अज्ञान न तो जीव का कोई गुण है और न इसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व है । प्राणी की अपनी भूल से, मिथ्यात्व से ही 'ज्ञान' अज्ञान रूप धारण करता है। यदि अज्ञान का स्वतंत्र अस्तित्व होता अर्थात् यह आत्मा का गुण या स्वभाव होता, तो इसका अंत या नाश कभी भी नहीं होता। अभिप्राय यह है कि किसी ज्ञान व दर्शन गुण का उपयोग होने या न होने से अथवा उपयोग न्यून व अधिक होने से ज्ञान - दर्शन गुण घटता-बढ़ता नहीं है । गुण का प्रकटीकरण घटता-बढ़ता है, इसका कारण कषाय का घटना - बढ़ना है। अतः जितना कषाय घटता जाता है, आत्मा के सब गुणों के प्रकटीकरण में उतनी ही वृद्धि होती जाती है। पहले भी कहा है कि जो सिद्धों का स्वरूप है, वही स्वभाव है । उस स्वभाव का ज्ञान ही श्रुतज्ञान है और यह श्रुतज्ञान प्राणिमात्र को स्वभाव से ही स्वतः प्राप्त है, यह किसी कर्म का फल नहीं है। कर्म से तो इस ज्ञान पर आवरण आता है । इस ज्ञान का प्रभाव न होना ही इस पर आवरण आना है। प्रभाव न होने का कारण इन्द्रियों के विषय सुखों में आबद्ध होना है। उस सुख में आबद्ध होना ही श्रुतज्ञान से विमुख होना है, उसका अनादर करना है, उसकी उपेक्षा करना है, उसके विपरीत आचरण करना है, अपने को धोखा देना है, यह प्रवंचना है, विडंबना है । यही श्रुत ज्ञान पर आवरण आना है। मिथ्यात्व के कारण इन्द्रियों के भोगों की पराधीनता को स्वाधीनता समझना श्रुतअज्ञान है । इन्द्रिय भोगों में जीवन बुद्धि होना- इन ज्ञानावरण कर्म 19
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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