SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राणी अपने श्रुतज्ञान की, स्वाभाविक माँग की पूर्ति इन्द्रिय जन्य ज्ञान से प्रभावित हो, भोगोपभोगों के द्वारा करने लगता है, तो उसे क्षणिक सुखाभास होता है। साथ ही वह भयंकर दुःख की आग में सदैव जलता रहता है। परन्तु प्राणी भोगों में प्रतीत होने वाले सुखाभास में आबद्ध हो अनन्तकाल से तृष्णा की आग में जल रहा है, आर्तग्रस्त हो रहा है, दुःखी हो रहा है, विषय-सुखों के मधु-बिंदु को पाने के लिए अपना भयंकर अहित कर रहा है। जब सम्यक् श्रुतज्ञान के प्रभाव से इन्द्रियजन्य ज्ञान का अंकित प्रभाव मिट जाता है, तो प्राणी की स्वाभाविक माँग पूरी हो जाती है, फिर श्रुतज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती। इस प्रकार मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दोनों से प्राणी ऊपर उठ जाता है। श्रुतज्ञान स्वयंसिद्ध ज्ञान चेतना का अविनाभावी गुण है। जहाँ चेतना है वहाँ ज्ञान है। ज्ञान और चेतना को भिन्न नहीं किया जा सकता, ज्ञान और चेतना अभिन्न हैं। चेतना अविनाशी है, अतः ज्ञान भी अविनाशी है। जो ज्ञान अविनाशी है, वही वास्तविक ज्ञान है। जैसे अमरत्व (अविनाशिपन), स्वाधीनता (मुक्ति), पूर्णता, शान्ति, प्रसन्नता, अक्षय-अव्याबाध- अनन्त सुख आदि चाहिये या नहीं चाहिये? यदि यह प्रश्न किसी से भी किया जाय, तो सभी का सदैव-सर्वत्र एक ही उत्तर मिलेगा, ये सब अवश्य चाहिये। कोई भी यह नहीं कहेगा कि नहीं चाहिये और न यही कहेगा कि मैं सोच कर फिर जवाब दूँगा। इसका मतलब यह है कि यह ज्ञान स्वयंसिद्ध है। यदि यह स्वयंसिद्ध न होता, तो सबका उत्तर एक न होता और तत्काल उत्तर नहीं मिलता। अतः यह सबका ज्ञान है, सार्वजनिक ज्ञान है, बिना कुछ काल की अपेक्षा किये तत्काल उत्तर मिलता है एवं सदैव सर्वत्र, एक-सा उत्तर मिलता है, इसलिए स्वयं सिद्ध ज्ञान है। स्वयं सिद्ध ज्ञान सार्वजनीन, सार्वकालिक, सार्वदेशिक तर्करहित एवं अकाट्य होता है। इस ज्ञान को स्वयं की देन मान ज्ञान का अभिमान करना भूल है। यह नियम है कि जो स्वयं-सिद्ध है, स्वतः सिद्ध है, वही तथ्य है। जो तथ्य है, वही सत्य है। जो सत्य है, वह अविनाशी है, अपरिवर्तनशील है, सनातन है, शाश्वत है। इसी अविनाशी ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं, जैसा कि कहा है 'सुदणाणलद्धिअक्रवरयं" -गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 322 व टीका ज्ञानावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy