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________________ है। यह श्रुत अज्ञान का प्रभाव है, यह श्रुत अज्ञान विवेक विहीन है, अविवेक जन्य है। अतः कुश्रुत और कुज्ञान है। यह दोषों व दुःखों को बढ़ाने वाला व जीव का अहित व अकल्याण करने वाला है। भव-भ्रमण का कारण है। मतिज्ञान से श्रुतज्ञान का भेद जो मन से व इन्द्रियों से अनुभव करके जाना जाता है, उस देखे हुए और जाने हुए ज्ञान को मतिज्ञान कहा गया है। मतिज्ञान के पश्चात श्रुतज्ञान होता है। यदि यह श्रुतज्ञान भी देखे हुए व जाने हुए ज्ञान का ही एक रूप या प्रकार होता तो मतिज्ञान के एक भेद के रूप में ग्रहण किया जाता। परन्तु मतिज्ञान से श्रुतज्ञान भिन्न है, इससे यह स्पष्ट है कि देखा हुआ और जाना हुआ ज्ञान श्रुतज्ञान नहीं है। श्रुतज्ञान है- देखे हुए, जाने हुए मतिज्ञान से अपने इष्ट और अनिष्ट का, हित-अहित का, हेय-उपादेय का ज्ञान करना। प्राणिमात्र का हित स्वभाव के अनुभव में है। अतः अपने स्वभाव का ज्ञान ही श्रुतज्ञान है। इसे श्रुतज्ञान इसलिए कहा है कि यह स्वतः प्राणिमात्र को सदैव प्राप्त है, देखा हुआ अथवा जाना हुआ नहीं है। श्रुतज्ञान सभी प्राणियों को स्वतः प्राप्त है, यह स्वयं सिद्ध ज्ञान है, इसकी सिद्धि के लिए किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं होती है। यह श्रुतज्ञान सभी को है, परन्तु जब यह श्रुतज्ञान इन्द्रिय, मन एवं बुद्धि जन्य ज्ञान (मतिज्ञान) से प्रभावित हो जाता है, तो इसकी गति दृश्यमान पौद्गलिक जगत की ओर, इन्द्रिय विषयों की ओर, भोग-उपभोग की ओर हो जाती है, फिर उसे दृश्य जगत्, इन्द्रियों के विषय-भोगोपभोग ही स्थायी, सत्य, सुंदर व सुखद प्रतीत होने लगते हैं। इनका संयोग इष्ट और इनका वियोग अनिष्ट लगने लगता है। प्राणी इनकी प्राप्ति में स्वाधीनता व सुख और अभाव में अपने को पराधीन व दुःखी अनुभव करने लगता है। यद्यपि प्राणी के चाहते हुए भी सभी इष्ट पदार्थ किसी को भी नहीं मिलते हैं, अतृप्ति-नीरसता सदैव बनी रहती है और जो इष्ट पदार्थ मिलते हैं, उन्हें सदा बनाये रखने की एवं उनका वियोग कभी न हो, यह प्रबल इच्छा होते हुए भी एक दिन उनका वियोग हो ही जाता है। जिससे उसे भयंकर दुःख होता है। इस प्रकार प्राणी बाह्य भोगोपभोग के इष्ट पदार्थों के संयोग की प्राप्ति व पूर्ति की कामना में तथा इनके वियोग के भय की प्रज्वलित, संज्वलित अग्नि के दुःख में सदा संतप्त रहता है। 1h ज्ञानावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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