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________________ तृतीये आख्याताध्याये चतुर्थः सम्प्रसारणपा : ११९ [दु० वृ०] ऋदन्तस्य च्विचेक्रीयितयिन्नायिषु परत: ईदन्तो भवति। मात्रीकरोति, जेह्रीयते, स्वस्रीयति, दुहित्रीयते। ऋत इति किम् ? कृ – चेकीर्यते।। ६११ । [दु० टी०] ऋतः। रूढिशब्दा हि तद्धिता: इत्याचार्याश्च्विग्रहणं न कुर्वते। अथ किमर्थं दीर्घोच्चारणं “नाम्यन्तानां यण्” (३ । ४। ७०) इत्यादिना दीर्घा भविष्यति, वक्ष्यमाणमिग्रहणं च न विधेयं स्यात् तर्हि 'क्रियते, क्रियात्' इत्यत्रापि दीर्घः प्रसज्येत, यद्येवम्, पुनरिकारस्तत्रोच्यते तबलाद् दीर्घो न भविष्यति। प्राप्ते हि दीर्घत्वे इकार आरभ्यमाणस्तस्य बाधक: स्यात्। भिन्नविषयेऽपि बाधा भवतीत्यागमेऽपि कृते न दीर्घः। 'सकृद् बाधितो विधिर्बाधित एव' (का० परि० ३६) इत्याचक्षतेऽन्ये।। ६११ । [समीक्षा] 'मात्रीकरोति, जेह्रीयते, चेक्रीयते' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्धयर्थ ऋकारान्त धातु के अन्त में ईकार की आवश्यकता होती है। इसे दोनों ही आचार्यों ने पूर्ण किया है। अन्तर यह है कि कातन्त्रकार ने 'ई' आगम किया है, तदनुसार पूर्ववर्ती ऋकार को रकारादेश होकर 'चेक्रीयते' आदि शब्द सिद्ध होते हैं, परन्तु पाणिनि ने 'ऋ' के स्थान में 'री' आदेश करके लाघव प्रदर्शित किया है, क्योंकि इसके फलस्वरूप 'ऋ' को रकारादेश नही करना पड़ता है। [विशेष वचन] १. रूढिशब्दा हि तद्धिता इत्याचार्याश्च्विग्रहणं न कुर्वते (दु ० टी०)। २. भिन्नविषयेऽपि बाधा भवति (दु० टी०)। [रूपसिद्धि] १. मात्रीकरोति। मातृ + च्वि-करोति। अमातरं मातरं करोति। 'मातृ' शब्द से 'च्वि' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से ऋकार के बाद 'ई' का आगम तथा 'रम् ऋवर्ण:" (१। २। १०) से 'ऋ' को 'र' आदेश। . २. जेहीयते। ह + चेक्रीयित–य + ते। पुन: पुनर्हरति। 'हबू हरणे (१५९६) धात से "धातोर्यशब्दश्चेक्रीयितं क्रियासमभिहारे' (३।२।१४) सूत्र द्वारा चेक्रीयितसंज्ञक 'य' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से 'ई' आगम, ऋ को र्, 'ही' को द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञादि, "हो जः' (३। ३। १२) से ह को ज्, अभ्यासघटित इकार को गुण, 'जेह्रीय' की धातुसंज्ञा, वर्तमानासंज्ञक आत्मनेपद-प्रथमपुरुष-एकवचन 'ते' प्रत्यय, अविकरण तथा अकार का लोप। ३. स्वस्त्रीयति। स्वस + यिन् + ति। स्वसारमात्मन: इच्छति। 'स्वस्' शब्द से “नाम्न आत्मेच्छावां यिन्' (३।२।५) से 'यिन्' प्रत्यय, अनुबन्धों का प्रयोगाभाव,
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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