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________________ २१५ नामचतुष्टयाध्याये चतुर्थः कारकपादः ५. स्वाम्पि। स्वप् + जस्, शस् (नपुंसकलिङ्ग)। "जस्शसौ नपुंसके" (२।१।४) से जस्-शस् की घुटसंज्ञा, “धुट्स्वराद् वुटि नुः" (२।२।११) से नुआगम, प्रकृत सूत्र से न् को अनुस्वार, “जस्शसोः शिः" (२।२।१०) से जस्शस् को 'शि' आदेश तथा “वर्गे वर्गान्तः' (२।४।४५) से अनुस्वार को मकारादेश ||३२९। ३३०. वर्ग वर्गान्तः [२।४।४५] [सूत्रार्थ] पद के मध्य में वर्तमान अनुस्वार के स्थान में वर्गीय अन्त्य वर्ण आदेश होता है वर्गसंज्ञक वर्ण के परे रहते ।।३३०। [दु० वृ०] अनन्त्योऽनुस्वारो वर्गे परे वर्गस्यान्तो भवति श्रुतत्वात् तस्यैव । शङ्किता, उञ्छिता, वण्टिता, नन्दिता, युजौ, स्वाम्पि | वर्ग इति किम् ? आक्रस्यते ।।३३०। [दु० टी०] वर्गे०। ननु कथम् अनुस्वार इह वर्तते विधेयत्वात् कार्यिणोरेव मनोरनुवृत्तिर्युक्तेति ? सत्यम् । अनुस्वारो हि व्यक्तौ प्रतिपत्तव्योऽनुस्वारीभूतो हि नकारः खलु रषाभ्यां णत्वमतिक्रामति-कुर्वन्ती, हृष्यन्ती इति । यदि पुनः श्रुतस्यैव वर्गस्य वर्गान्तता किमनेन वर्गग्रहणेन ? सत्यम् । वर्गग्रहणं न विस्पष्टार्थम्, किन्तर्हि निमित्तस्यैव वर्गस्यान्तो यथा स्याद् इत्येवमर्थं तदा णत्वस्य बाधा सिद्धैव मनोर्वर्गे वर्गान्तः इति वाक्यार्थेऽप्यदोषः ।।३३०। [समीक्षा] 'शं + किता, उं+ छितुम्, नं+दिता, कं + पिता' इस अवस्था में पाणिनि तथा शर्ववर्मा दोनों ने ही अनुस्वार को वर्गीय अन्तिम वणदिश करके 'शङ्किता, उञ्छितुम्, नन्दिता, कम्पिता' आदि शब्द सिद्ध किए हैं । पाणिनि ने परसवणदिश विधान किया है - "अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण:' (अ० ८।४।५८)। परसवदिश की अपेक्षा वर्गान्त आदेश में सरलता तथा स्पष्टता ही कही जाएगी । इस सूत्र पर विवरणपञ्जिका तथा कलापचन्द्र व्याख्या उपलब्ध नहीं है।
SR No.023088
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 02 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1999
Total Pages806
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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