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________________ कातन्त्रव्याकरणम् इत्यादि प्रयोगों में भी छकारादेश करते हैं - "लानुनासिकेष्वपीच्छन्त्यन्ये"। पाणिनीय व्याकरण में कात्यायन का भी एतादृश वचन है - "छत्वममीति वाच्यम्" (पा०८।४।६३-वा०) । वाग्घीनः- वाग्हीनः, अज्झलौ-अज्हलौ' इत्यादि में विकल्प से हकार के स्थान में पूर्वचतुर्थ वर्ण आदेश किया गया है। पाणिनि के "झयो होऽन्यतरस्याम्" (पा०८।४।६२) निर्देश में झय् प्रत्याहार तथा सावर्ण्य के ज्ञान में असौकर्य ही होता है । 'तल्लुनाति - तच्चरति-तट्टीकनम्' इत्यादि में तकार को पररूप होता है। 'तच्श्लक्ष्णः, तच्श्मशानम्' इत्यादि में पदान्तवर्ती तकार के स्थान में चकारादेश होता है, शकार के परवर्ती होने पर । यहाँ विशेष ज्ञातव्य है कि "वर्गप्रथमेभ्यः शकारः स्वरयवरपरश्छकारं न वा" (१।४।३) सूत्र से शकार को छकारादेश, “पररूपं तकारो लचटवर्गेषु" (१।४।५) से 'त्' को 'छ्' आदेश तथा “अघोषे प्रथमः" (२।३।६१) से पदान्तवर्ती 'छ्' को 'च्' आदेश करके भी ‘तच्छ्लक्ष्णः, तच्छ्मशानम्' रूपों का साधुत्व दिखाया जा सकता है, तो फिर पदान्तवर्ती तकार के स्थान में चकारादेशविधायक प्रकृत सूत्र को बनाने की क्या आवश्यकता है ? इसका समाधान इस प्रकार किया जाता है - शकार को छकारादेश विकल्प से होता है (१।४।३)। अतः छकारादेश न होने पर उक्त प्रक्रिया नहीं दिखाई जा सकती । इसी पक्ष को ध्यान में रखकर आचार्य शर्ववर्मा ने यह सूत्र बनाया है । प्रश्नोत्तर के रूप में यह चर्चा इस प्रकार निबद्ध हुई है चं शे सूत्रमिदं व्यर्थं यत् कृतं शर्ववर्मणा। तस्योत्तरपदं ब्रूहि यदि वेत्सि कलापकम् ॥ मूढधीस्त्वं न जानासि छत्वं किल. भाषया । यत्र पक्षे न च छत्वं तत्र पक्षे त्विदं वचः॥ कुछ विद्वानों का विचार है कि यदि "पररूपं तकारो ल-च-टवर्गेषु" (१।४।५) में श् को भी पढ़ दिया जाए तो 'त्' को पररूप 'श्' होगा और उस शकार के स्थान में "स्थानेऽन्तरतमः" (कात० परि० सू० १७; का० परि० सू० २४) न्यायवचन के अनुसार "पदान्ते धुटां प्रथमः" (३।८।१) से चकारादेश करके भी ‘तच्श्लक्ष्णः , तच्श्मशानम्' रूप सिद्ध किए जा सकते हैं (द्र० - वं० भा०)।
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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