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________________ ११ प्रास्ताविकम् मात्" (१।१।१) में नहीं । फलतः उससे ‘रामकृष्णावमू आसाते' में भी प्रगृह्यसंज्ञा करनी पड़ती है । 'अमुकेऽत्र' में प्रगृह्यसंज्ञा न हो - एतदर्थ ‘मात्' पद भी पढ़ना पड़ता है । कलाप में द्विवचन तथा बहुवचन शब्द का स्पष्ट उल्लेख है एवं बहुवचन के साथ 'अमी' रूप भी पठित है, जिससे 'अमुकेऽत्र' में प्रकृतिभाव होने का अवसर ही नहीं है। अन्तिम चतुर्थ सूत्र से वर्णसमाम्नाय में उपदिष्ट न होने वाले प्लुतों का स्वरों के परवर्ती होने पर प्रकृतिभाव होता है । जैसे- 'आगच्छ भो देवदत्त अत्र, तिष्ठ भो यज्ञदत्त इह'। यहाँ विशेष ज्ञातव्य है कि पाणिनि ने त्रिमात्रिक अच् की प्लुतसंज्ञा मानी है – “ऊकालोऽज्यस्वदीर्घप्लुतः" (पा० १।२।२७), परन्तु कलापचन्द्रकार सुषेण विद्याभूषण के अनुसार कहीं पर भी प्लुत को त्रिमात्रिक नहीं दिखाया गया है । अतः दीर्घ को ही प्लुत मानना चाहिए । सामान्यतया पाणिनीय व्याकरण के अतिरिक्त भी प्रायः व्याकरणशास्त्र में प्लुत को त्रिमात्रिक ही माना जाता है । एक विवरण तो चतुर्मात्रिक भी मानने के पक्ष में है। विशेषतः ए, ऐ, ओ और औ जब प्लुत होते हैं तो उनके विषय में चतुर्मात्रिक प्लुत मानना उचित भी प्रतीत होता है । परन्तु वहाँ सिद्धान्त त्रिमात्रिक प्लुत का ही स्थापित किया जाता है (द्र०, म० भा० - ए ओङ्, ऐ औच, वृद्धिरादेच्१।१।१)। कलापचन्द्रकार ने प्लुत के स्वरूपतः उपदेश की बात कहकर उसे स्वीकार नहीं किया है । वस्तुतः ऐसा होने पर भी ऋक्तन्त्र में जो स्वरूपतः त्रिमात्रिक के रूप में पढ़ा गया है, उसे देखकर तो कलापचन्द्रकार का वचन प्रमादपूर्ण ही कहा जा सकता है । __चतुर्थ पाद में १६ सूत्र हैं। इनमें अनेक आदेश द्रष्टव्य हैं । प्रथम सूत्र में तृतीयवर्ण आदेश के रूप में विहित हैं । जैसे - 'वागत्र, षड् गच्छन्ति'। इसके अनुसार पद के अन्त में वर्तमान वर्गीय प्रथम वर्णों (क् च् ट् त् प्) के स्थान में तृतीय वर्ण (ग् ज् ड् द् ब्) क्रमशः हो जाते हैं, यदि स्वरसंज्ञक वर्ण अथवा घोष- संज्ञक वर्ण पर में रहें तो | पाणिनीय व्याकरण के अनुसार "झलां जशोऽन्ते" (पा० ८।२।३९) सूत्र प्रवृत्त होता है । 'वाङ्मती - वाग्मती, षण्मुखानि-षड् मुखानि, तन्नयनम्-तद्नयनम्' आदि में वैकल्पिक पञ्चम - तृतीय वर्ण किए गए हैं । 'वाक्छूरः- वाक्शूरः इत्यादि में विकल्प से छकारादेश होता है । वार्त्तिककार 'वाक्श्लक्ष्णः, तच्छमशानम्'
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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