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________________ प्रास्ताविकम् १३ अग्रिम सूत्र द्वारा ङ्, ण तथा न् वर्ण के द्वित्व का विधान किया गया है । जैसे- ' क्रुत्र, सुगण्णत्र, पचन्नत्र' । कातन्त्रकार क्रुङ् + अत्र, सुगण + अत्र, पचन् + अत्र' इस अवस्था में हस्व उपधा वाले 'ङ्-ण-न्' वर्गों का द्वित्व करके उक्त शब्दरूपों की सिद्धि करते हैं | पाणिनि के अनुसार यहाँ क्रमशः छुट्-णुट-नुट् आगम होते हैं - "ङमो हस्वादचि ङमुण नित्यम्" (पा० ८।३।३२) । इन आगमों के टित् होने के कारण "आयन्तौ दकितौ" (पा० १।१।४६) परिभाषासूत्र, इत्संज्ञाविधायक तथा लोपविधायक सूत्रों की भी आवश्यकता होती है। इसके परिणामस्वरूप पाणिनीयप्रक्रिया में दुरूहता और गौरव स्पष्ट है, जब कि कातन्त्रीय प्रक्रिया में सरलता और लाघव । 'भवांश्चरति, भवांश्छादयति' इत्यादि शब्दरूपों की सिद्धि के लिए पदान्तवर्ती नकार के स्थान में अनुस्वारपूर्वक शकारादेश किया है - "नोऽन्तश्चछयोः शकारमनुस्वारपूर्वम्" (१।४।८)। उक्त रूपों की सिद्धि के लिए पाणिनीय प्रक्रिया विस्तृत तथा दुर्बोध प्रतीत होती है । क्योंकि इसके अनुसार 'भवान् + चरति, भवान् + छादयति' इस अवस्था में "नश्छव्यप्रशान्" (८।३।७) से नकार के स्थान में 'रु' आदेश, “अत्रानुनासिकः पूर्वस्य तु वा" (८।३।२) से वैकल्पिक अनुनासिक, पक्ष में "अनुनासिकात् परोऽनुस्वारः" (८।३।४) से अनुस्वारागम, "खरवसानयोर्विसर्जनीयः"(८।३।१५) से विसगदिश, “विसर्जनीयस्य सः"(८।३।३४) से विसर्ग को सकार तथा "स्तोः श्चुना श्चुः" (८।४।४०) से शकारादेश होता है । इस प्रकार कातन्त्रीय प्रक्रिया में संक्षेप और सरलता सन्निहित होने से लाघव स्पष्ट है । 'भवांष्टीकते, भवांष्ठकारेण ' में पदान्तवर्ती नकार के स्थान में अनुस्वारपूर्वक मूर्धन्य षकारादेश होता है । पाणिनि के अनुसार यहाँ भी न को रु, रु को विसर्ग, विसर्ग को स्, स् को ष् आदेश तथा अनुस्वार - अनुनासिक प्रवृत्त होते हैं । अतः यहाँ की भी पाणिनीय प्रक्रिया गौरवपूर्ण है | "भवांस्तरति, भवांस्थुडंति' आदि की सिद्धि पदान्त नकार को अनुस्वारपूर्वक सकारादेश करके दिखाई गई है । यहाँ की भी पाणिनीय प्रक्रिया उक्त की तरह होने से गौरवपूर्ण है । कातन्त्रकार ने 'पुंस्कोकिल:, पुंश्चकोरः' आदि की सिद्धि के लिए सूत्र नहीं बनाए हैं। इस पर दुर्गसिंह आदि व्याख्याकारों ने कहा है कि शिभिन्न अघोष के पर में रहने पर 'पुमन्स्' शब्द में प्राप्त संयोगान्तलोप अनित्य माना जाता है | तदनुसार 'पुमांश्चासौ कोकिलश्च' इस विग्रह तथा 'पुमन्स् + कोकिलः' इस अवस्था में "व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभोः" (२।५।४) सूत्र द्वारा अतिदेश "पुंसोऽन्शब्दलोपः" (२।२।४०) से अन् का लोप,
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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