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________________ २३ विषयानुक्रमणी ३४. विसर्गस्य 'उ-लोप-' आदेशाः २५५-८१ [दो अकारों के मध्यवर्ती विसर्ग को अकार - घोषवान् वर्गों के मध्यवर्ती विसर्ग को उकारादेश, वैकल्पिक यकारादेश, लोप तथा रकारादेश, विविध आचार्यों के अभिमत, शब्दरूपसिद्धि, पाणिनीयप्रक्रिया का गौरव, चतुर्विध बाहुलकविधि, ‘महच्चरण' प्रतीक से दो विशिष्ट अभिमतों का तथा कुलचन्द्र के एक विशिष्ट अभिमत का उपस्थापन] ३५. विसर्जनीयलोपे पुनः सन्धेरभावः २८१-८५ [‘क इह, देवा आहुः, भो अत्र' में प्राप्त गुण-दीर्घ-अयादेशसन्धि का अभाव, विविध आचार्यों के अभिमत, परिभाषावचन, द्रुतादि वृत्तियों का विशेष उपयोग - अभ्यासार्थे द्रुतां वृत्तिं प्रयोगार्थे तु मध्यमाम् । शिष्याणामवबोधार्थं कुर्याद् वृत्तिं विलम्बिताम् ॥ ३६. रकारस्य लोपः पूर्ववर्तिनः स्वरस्य दीदिशश्च २८५-८७ ['अग्नी रथेन, पुना रौति' आदि प्रयोगों में पूर्ववर्ती रेफ का लोप तथा उससे पूर्ववर्ती स्वर वर्ण को दीर्घ आदेश, सूत्रपठित चकार को अन्वाचयशिष्ट मानना, कुछ विशेषताएँ, शब्दरूपसिद्धि] ३७. छकारस्य द्विर्भावः २८७-९१ ['इच्छति, गच्छति, कुटीच्छाया' आदि में छकार को द्विर्भाव तथा पूर्ववर्ती छकार को चकारादेश, पाणिनीयप्रक्रिया में गौरव-तुगागम आदि के विधान से, शब्दरूपसिद्धि] ३८. प्रथमं परिशिष्टम् २९२-३२० [ग्रन्थकार श्रीपतिदत्त का मङ्गलाचरण, वृद्धि-दीर्घ-पररूप-प्रकृतिभाव-हस्वप्रकृतिभावनिषेध-पञ्चमवदिश-विसर्ग - अनुनासिक - कार - णकार - मलोपअकारलोप-द्वित्व-सुडागम-निपातनविधिविषयक सन्धिप्रकरण के १४२ सूत्र] द्वितीयं परिशिष्टम् ३२१-२५ ['अ अपेहि, इ इन्द्रं पश्य, कः शेते, को धावति, गच्छति, तज्जयति, तद्धितम्, देवा आहुः, नायकः, भवाँल्लिखति, माले इम्, लाकृतिः, वाङ्मती,
SR No.023086
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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