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________________ क्रिया तथा कारक ४३ ( ३ ) यदि फूत्कारादि व्यापार प्रत्ययार्थ रखे जाते हैं तो 'पचति' के समान 'गच्छति' में भी समान रूप से तिप् प्रत्यय होने के कारण फूत्कारादि व्यापारों की प्रतीति होगी। यदि इस असंगति से बचने के लिए कहें कि पचादि धातुओं के समभिव्याहार ( सहोच्चारण ) स्थल में ही प्रत्यय का अर्थ फूत्कारादि है तो कल्पना - गौरव होगा । यदि पचादि धातु ही फूत्कार के प्रयोजक हैं तो व्यापार का बोध कराने के लिए धातुगत शक्ति मानने में क्या आपत्ति है ? वैयाकरणों के मत में धातु-भेद से व्यापार-भेद होता है, अतः उक्त 'पचति' तथा 'गच्छति' क्रियाओं के व्यापार-भेद की उपपत्ति में कोई विसंगति नहीं हो सकती । ( ४ ) फलमात्र को धात्वर्थ मानने से सकर्मक तथा अकर्मक के व्यवहार का उच्छेद हो जायगा | स्वार्थ . ( धात्वर्थ ) के रूप में स्थित व्यापार के अधिकरण से भिन्न अधिकरण में रहनेवाले फल का वाचक सकर्मक होता है और स्वार्थ ( धात्वर्थं ) के रूप में स्थित व्यापार के अधिकरण ( आधार, आश्रय ) में ही स्थित फल का वाचक अकर्मक होता है । यही दोनों क्रियाओं के व्यवहार का मूल है । यदि व्यापार धात्वर्थ नहीं रहे तो ऐसा व्यवहार नहीं हो सकेगा । मीमांसक सकर्मक अकर्मक के व्यवहार की रक्षा के लिए नये लक्षण देते हैं । उनके मत में प्रत्ययार्थ-भूत व्यापार से भिन्न अधिकरण वाले फल का वाचक सकर्मक है तथा प्रत्ययार्थ-भूत व्यापार के अधिकरण में ही रहने वाले फल का वाचक अकर्मक है । वे लोग प्रत्ययार्थ-रूप व्यापार के आश्रय को कर्ता समझते हैं । पुनः वे कहेंगे कि 'घटं भावयति' में णिच् के अर्थ ( प्रेरणाव्यापार ) के अधिकरण से भिन्न अधिकरणवाले फल का आश्रय होने से 'घट' कर्म है । मीमांसक इस कथन के द्वारा अपने मत की रक्षा भले ही कर लें, किन्तु इससे एक दूसरी कठिनाई उत्पन्न हो जायेगी । वह यह कि अभिधान ( उक्त होना ) तथा अनभिधान ( अनुक्त होना ) की जो व्याकरणशास्त्र में एक निश्चित व्यवस्था है, उसका उच्छेद हो जायेगा । चूंकि तिङ् आश्रय के अर्थ में नहीं रह सकेगा ( क्योंकि वह व्यापारार्थक है ) इसलिए 'तिकृत्तद्धितसमासे: परिसङ्ख्यानम्' इस वार्तिक की परिगणना के अनुसार व्यापार तथा फल के आश्रयभूत कर्ता और कर्म का अभिधान तिङ्-प्रत्यय नहीं कर सकेगा । इसके उत्तर में मीमांसक यह कहते हैं कि प्रत्ययार्थ व्यापार से आश्रय का आक्षेप होने से कर्ता अभिहित होता है और कर्मवाचक तिङन्त में प्रधानीभूत फल के द्वारा अपने आश्रय का आक्षेप होने से कर्म अभिहित होता है । किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार जाति मात्र में शक्ति मानने पर जाति से आक्षिप्त व्यक्ति होता है, उसी प्रकार मीमांसकों के मतानुसार व्यापार से आक्षिप्त आश्रय ( कर्ता या कर्म ) की प्रधानता क्रिया में होने का अनिष्ट प्रसंग उत्पन्न हो जायेगा । यास्क ने 'भाव - १. परमलघुमञ्जूषा, वंशीटीका, पृ० ४९ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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