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________________ संस्कृत - व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन देवदत्तः ?' तो उत्तर में यदि 'अस्ति तावत्' कहा जाय तो इसके क्रियात्व का कौन निवारण करेगा ? तब एक बात अवश्य है कि कृ, भू, अस् का चूंकि प्रत्येक धातु में अन्वय होता है, अतः ये क्रियासामान्य हैं, 'पचति' आदि क्रिया-विशेष के वाचक हैं ' । ४२ मण्डनमिश्र : फल की धात्वर्थता सुप्रसिद्ध मीमांसक मण्डन मिश्र का धात्वर्थ विषयक विचार वैयाकरणों के बीच अत्यधिक आलोचना का विषय रहा है । अतएव उनके तथाकथित एकांगी मत का निरूपण करना आवश्यक है । वे कहते हैं कि धात्वर्थ केवल फल ही है, व्यापार का बोध तो प्रत्यय से होता है । तदनुसार गम्-धातु का अर्थ है - उत्तर देश के साथ संयोग की प्राप्ति; जो निश्चय ही फल है । धातु के अर्थ में प्रत्यय व्यापार का अर्थबोध कराते हैं और तब पूरी क्रिया से व्यापार सहित फल का बोध होने लगता है । उदाहरणार्थ 'गच्छति' क्रिया में गम् तथा तिप् क्रमशः फल और व्यापार का बोध कराते हैं, जिससे हमें ज्ञान होता है कि एक व्यक्ति व्यापार में लगा है कि वह उत्तर देश के संयोग में आ सके । व्यापार की समाप्ति हो जाने पर कोई भी प्रत्यय धातु में नहीं जोड़ा जाता । धातु के फल की अप्राप्तावस्था में ही व्यापार- बोधक प्रत्यय लगाये जाते हैं तथा इसीलिए फलप्राप्ति के लिए व्यापार की कल्पना भी अनिवार्य है २ । नागेश द्वारा आलोचना मण्डन मिश्र के उपर्युक्त विचार का संक्षिप्त उद्धरण देकर नागेश ने अपनी लघुमंजूषा में इसका विशद रूप से खण्डन किया है। उनकी युक्तियों का सारांश यह है— ( १ ) फलमात्र को धात्वर्थ मानने पर सर्वप्रथम पाणिनि के सूत्र 'लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः' ( ३।४।६९ ) का विरोध होगा । इस सूत्र में लकार ( तिङ्प्रत्यय ) का अर्थ बतलाया गया है, किन्तु यह तनिक भी संकेतित नहीं होता कि उन प्रत्ययों का अर्थ व्यापार भी है । ( २ ) एक ही धातु में विभिन्न प्रत्यय लगाकर निष्पन्न हुए विभिन्न क्रियारूपों में व्यापार की भिन्नता माननी पड़ेगी, जैसे- पचति, पक्ष्यति तथा पक्ववान् - इन क्रियाओं से फूत्कार ( फूंकना ) आदि व्यापार का ज्ञान कैसे होगा ? निश्चित रूप से हमें विभिन्न प्रत्ययों में उक्त व्यापार ज्ञान कराने के लिए शक्ति की कल्पना करनी पड़ेगी । पृथक्-पृथक् प्रत्ययों में समान व्यापार-बोध कराने के लिए अलग-अलग शक्ति माननी होगी - यह अनुचित है । इससे कहीं अच्छा है कि धातु में शक्ति मानें जिससे एक ही शक्ति के द्वारा उक्त व्यापार का सरलतया समान रूप से बोध हो । १. हेलाराज ३१८। १२ की व्याख्या में । २. भाट्टचिन्तामणि, पृ० १०१ । ३. ल० म०, पृ० ५३३-३४ ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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