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________________ क्रिया तथा कारक का बोधक है, प्रत्युत 'फल की ओर अभिमुख व्यापार' अर्थात् अन्न की विक्लित्ति ( कोमलता ) उत्पन्न करने की दिशा में होने वाले अवान्तर व्यापारों का समुदित रूप से बोध कराने वाला पद है । इसलिए वैयाकरणों के सिद्धान्त के अनुसार फल और व्यापार दोनों मिलकर धातु का अर्थ संघटित करते हैं । निरुक्त में क्रिया का विचार सर्वप्रथम यास्क ने निरुक्त ( 119 ) में आख्यात के नाम से क्रिया का लक्षण किया है ---' भावप्रधानमाख्यातम्' । इसके दो अर्थ किये जाते हैं । एक अर्थ के अनुसार 'भाव' शब्द क्रिया के फल का बोधक है अतः क्रिया में फल की प्रधानता तथा व्यापार की अप्रधानता होती है । व्यापार फल को लक्षित करके होता है, क्योंकि फल ही व्यापार का उद्देश्य है । इसके ठीक विपरीत इसका दूसरा अर्थ भी इसके अनुसार भाव व्यापारमात्र का बोधक है । क्रिया के अर्थ में और अन्य साधन उसे पूरा करने में सहायक होते हैं । यही कारण है किया जाता है कि वह क्या कर रहा है ? तब उत्तर होता है कि वह तथ्यानुसार प्रश्न तथा उत्तर दोनों ही उसके व्यापार से सम्बद्ध हैं । यास्क ने आगे चलकर आख्यात के स्वरूप के विषय में बतलाया है कि उपक्रम से लेकर अपवर्ग ( फल प्राप्ति ) पर्यन्त जितने भी अवान्तर व्याफार पूर्वापर-क्रम से होते हैं, वे सभी भाव या क्रिया कहे जाते हैं । भावों का जब अन्तिम परिणाम निकल जाता है तब वे सिद्ध, मूर्त या ठोस हो जाते हैं तथा उन्हें आख्यात नहीं कहा जाता । मूर्त होने पर वे सत्त्व या नाम कहलाते है । अमूर्त या साध्य रहने पर भाव क्रिया है, किन्तु सिद्ध या मूर्त होने पर जब वह निश्चित रूप धारण करने के कारण प्रत्यक्षगम्य हो जाता है, तब वही नाम पद से व्यपदिष्ट होता है । पूर्वावस्था में जो आख्यात है वही अवस्थाविशेष में नाम होता है । अतः यास्क के अनुसार प्रत्येक नाम को आख्यातावस्था से होकर आना अनिवार्य है । 'सर्वाणि नामान्याख्यातजानि' इस नैरुक्त सिद्धान्त की पृष्ठभूमि में नाम तथा आख्यात की यह व्याख्या ही काम करती है । यास्क ने वार्ष्याणि के मत का उल्लेख करते हुए भाव ( क्रिया ) के छह विकार ( अवस्थाएँ ) माने हैं - उत्पत्ति ( जायते ), सत्ता ( अस्ति ), परिणाम विपरिणमते), वृद्धि ( वर्धते ), क्षय ( अपक्षीयते ) और विनाश ( विनश्यति ) । सभी क्रियाओं तथा मूर्त पदार्थों के जीवन में भी ये छहों अवस्थाएँ आती हैं; भले ही ये अत्यन्त सूक्ष्म तथा साधारण अनुभव में न आने योग्य क्यों न हों । क्रिया का 'करोति' या 'अस्ति' से अन्वय ३७ किया जाता है । व्यापार मुख्य है कि जब प्रश्न पका रहा है । यास्क के मत का विस्तृत तथा स्पष्ट विवेचन हम पतञ्जलि के भाष्य में पाते हैं । 'भूवादयो धातवः' ( पा० सू० १।३।१ ) सूत्र के अन्तर्गत धातु का लक्षण - विचार १. द्रष्टव्य - दुर्गाचार्य की व्याख्या ( 119 ) ।
SR No.023031
Book TitleSanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Surbharti Prakashan
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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